राजस्थान के लोक देवी- देवता

राजस्थान के लोक देवी- देवता

– 1. रामदेवजी

 

रामदेव जी राजस्थान के एक लोक देवता हैं।

 

15वी. शताब्दी के आरम्भ में भारत में लूट खसोट, छुआछूत, हिंदू-मुस्लिम झगडों आदि के कारण स्थितियाँ बड़ी अराजक बनी हुई थीं। ऐसे विकट समय में पश्चिम राजस्थान के पोकरण नामक प्रसिद्ध नगर के पास रुणिचा नामक स्थान में रुणिचा के शासक अजमाल

जी के घर भादो शुक्ल पक्ष दूज के दिन वि•स• 1409 को बाबा रामदेव पीर अवतरित हुए

 

रामदेवजी को हिंदू-मुस्लिम एकता के प्रतीक के रूप में जाना जाता है।  सभी प्रकार के भेद-भाव को मिटाने एवं सभी वर्गों में एकता स्थापित करने की पुनीत प्रेरणा के कारण बाबा रामदेव जहाँ हिन्दुओ के देव है तो मुस्लिम भक्त बाबा को रामसा पीर कह कर पुकारते

हैं।

 

राजस्थान के जनमानस में पॉँच पीरों की प्रतिष्ठा है जिनमे बाबा रामसा पीर का विशेष स्थान है।

 

संवत् 1942 को रामदेव जी ने अपने हाथ से श्रीफल लेकर सब बड़े बुढ़ों को प्रणाम किया तथा सबने पत्र पुष्प् चढ़ाकर रामदेव जी का हार्दिक तन मन व श्रद्धा से अन्तिम पूजन किया। रामदेव जी ने समाधी में खड़े होकर सब के प्रति अपने अन्तिम उपदेश देते हुए कहा

प्रति माह की शुक्ल पक्ष की दूज को पूजा पाठ, भजन कीर्तन करके पर्वोत्सव मनाना, रात्रि जागरण करना।

 

प्रतिवर्ष मेरे जन्मोत्सव के उपलक्ष में तथा अन्तर्ध्यान समाधि होने की स्मृति में मेरे समाधि स्तर पर मेला लगेगा। मेरे समाधी पूजन में भ्रान्ति व भेद भाव मत रखना। मैं सदैव अपने भक्तों के साथ रहुँगा। इस प्रकार श्री रामदेव जी महाराज ने समाधी ली।

 

गरीबों के रखवाले रामदेव जी का अवतार ही भक्तों के संकट हरने के लिए ही हुआ था। राजस्थान में जोतपुर के पास रामदेवरा नामक स्थान है। जहाँ प्रतिवर्ष रामदेव जंयती पर विशाल मेला लगता है। दूर-दूर से भक्त इस दिन रामदेवरा पहुँचते है। कई लोग तो नंगे पैर

चलकर रामदेवरा जाते है।

 

– 2. तेजा जी

 

लोक देवता तेजाजी का जन्म नागौर जिले में खड़नाल गाँव में ताहरजी (थिरराज) और रामकुंवरी के घर माघ शुक्ला, चौदस संवत 1130 यथा 29 जनवरी 1074 को जाट परिवार में हुआ था

 

तेजाजी राजस्थान, मध्यप्रदेश और गुजरात प्रान्तों में लोकदेवता के रूप में पूजे जाते हैं।  किसान वर्ग अपनी खेती की खुशहाली के लिये तेजाजी को पूजता है।

 

तेजाजी के प्रमुख मंदिरों में खरनाल नागौर में तेजाजी का मंदिर एवं सुरसुरा अजमेर में तेजाजी का धाम है

 

लोग तेजाजी के मन्दिरों में जाकर पूजा-अर्चना करते हैं और दूसरी मन्नतों के साथ-साथ सर्प-दंश से होने वाली मृत्यु के प्रति अभय भी प्राप्त करते हैं।

 

स्वयं तेजाजी की मृत्यु, जैसा कि उनके आख्यान से विदित होता है, सर्प- दंश से ही हुई थी।  बचनबद्धता का पालन करने के लिए तेजाजी ने स्वयं को एक सर्प के सम्मुख प्रस्तुत कर दिया था। वे युद्ध भूमि से आए थे और उनके शरीर का कोई भी हिस्सा हथियार

की मार से अक्षत् नहीं था। घावों से भरे शरीर पर अपना दंश रखन को सर्प को ठौर नजर नहीं आई, तो उसने काटने से इन्कार कर दिया। वचन-भंग होता देख घायल तेजाजी ने अपना मुँह खोल कर जीभ सर्प के सामने फैला दी थी और सर्प ने उसी पर अपना दंश रख

कर उनके प्राण हर लिए थे।

 

तेजाजी के देवरो में साँप के काटने पर जहर चूस कर निकाला जाता है तथा तेजाजी की तांत बाँध का सर्पदंश का इलाज किया जाता है।

 

तेजाजी की घोड़ी का नाम ‘लीलण’ था

 

– 3. जाम्भोजी

 

जन्म : वि. संवत् 1508 भाद्रपद बदी 8 कृष्ण जन्माष्टमी को अर्द्धरात्रि कृतिका नक्षत्र में (सन् 1451)

 

जन्म स्थान: पींपासर जिला नागौर (राज.), यह सुरापुर, जांगला में स्थित है।

 

पिताजी : ठाकुर श्री लोहटजी पंवार

 

काकाजी : श्री पुल्होजी पंवार (इनको प्रथम बिश्नोई बनाया था।)

 

सात वर्ष तक मौन एवं सत्ताईस वर्ष गायें चराने के बाद, 34 वर्ष की आयु में गृह त्याग कर समराथल धोरे पर गमन एवं सन्यास धारण।

 

विश्नोई समाज में उनतीस नियमों का पालन करना आवश्यक है। इस सम्बन्ध में एक कहावत बहुत प्रसिद्ध है, जो इस प्रकार है- उन्नतीस धर्म की आखडी हिरदे धरियो जोय, जम्भोजी कृपा करी नाम विश्नोई होय।

 

जाम्भोजी महाराज का भ्रमण व्यापक था। 51 वर्ष तक देश-विदेशों में भ्रमण किया। राजा-महाराजा, अमीर -गरीब, साधु-गृहस्थों को विभिन्न चमत्कार दिखाए। उपदेश दिए एवं वि.सं. 1593 मिंगसर बदी नवमी चिलतनवमी के दिन लालासर की साथरी पर निर्वाण को

प्राप्त हुए।

 

जाम्भोजी की शिक्षाओं पर अन्य धर्मों का प्रभाव स्पष्ट रुप से दृष्टिगोचर होता है। उनकी शिक्षाओं पर वैष्णव सम्प्रदाय तथा नानकपंथ का भी बड़ा प्रभाव है। इस सम्प्रदाय में गुरु दीक्षा एवं डोली पाहल आदि संस्कार साधुओं द्वारा सम्पादित करवाये जाते हैं, जिनमें कुछ

महन्त भी भाग लेते हैं।

 

– 4. गोगाजी

 

गोगाजी का जन्म विक्रम संवत 1003 में चुरू जिले के ददरेवा, चुरू में हुआ था सिद्ध वीर गोगादेव के जन्मस्थान, जो राजस्थान के चुरू जिले के दत्तखेड़ा ददरेवा में स्थित है।

 

गोगाजी राजस्थान के लोक देवता हैं जिन्हे जहरवीर गोगा जी के नाम से भी जाना जाता है। राजस्थान के हनुमानगढ़ जिले का एक शहर गोगामेड़ी है। यहां भादव शुक्लपक्ष की नवमी को गोगाजी देवता का मेला भरता है। इन्हे हिन्दु और मुस्लिम दोनो पूजते है|

 

यहाँ सभी धर्म और सम्प्रदाय के लोग मत्था टेकने के लिए दूर-दूर से आते हैं। कायम खानी मुस्लिम समाज उनको जाहर पीर के नाम से पुकारते हैं तथा उक्त स्थान पर मत्था टेकने और मन्नत माँगने आते हैं। इस तरह यह स्थान हिंदू और मुस्लिम एकता का

प्रतीक है।  मध्यकालीन महापुरुष गोगाजी हिंदू, मुस्लिम, सिख संप्रदायों की श्रद्घा अर्जित कर एक धर्मनिरपेक्ष लोकदेवता के नाम से पीर के रूप में प्रसिद्ध हुए।

 

गोगाजी का जन्म राजस्थान के ददरेवा (चुरू) चौहान वंश के राजपूत शासक जैबर (जेवरसिंह) की पत्नी बाछल के गर्भ से गुरु गोरखनाथ के वरदान से भादो सुदी नवमी को हुआ था। चौहान वंश में राजा पृथ्वीराज चौहान के बाद गोगाजी वीर और ख्याति प्राप्त राजा थे।

गोगाजी का राज्य सतलुज सें हांसी (हरियाणा) तक था।

 

लोकमान्यता व लोककथाओं के अनुसार गोगाजी को साँपों के देवता के रूप में भी पूजा जाता है। लोग उन्हें गोगाजी चौहान, गुग्गा, जाहिर वीर व जाहर पीर के नामों से पुकारते हैं। यह गुरु गोरक्षनाथ के प्रमुख शिष्यों में से एक थे।

 

लोक देवता जाहरवीर गोगाजी की जन्मस्थली ददरेवा में भादवा मास के दौरान लगने वाले मेले के दृष्टिगत पंचमी (सोमवार) को श्रद्धालुओं की संख्या में और बढ़ोतरी हुई। मेले में राजस्थान के अलावा पंजाब, हरियाणा, उत्तरप्रदेश व गुजरात सहित विभिन्न प्रांतों से श्रद्धालु

पहुंच रहे हैं।

 

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– 5. जीणमाता

 

जीण माता राजस्थान के सीकर जिले में स्थित धार्मिक महत्त्व का एक गाँव है। यह सीकर से 29किलोमीटर दक्षिण में स्थित है।

 

यहाँ पर जीणमाता (शक्ति की देवी) एक प्राचीन मन्दिर स्थित है। जीणमाता का यह पवित्र मंदिर सैकड़ों वर्ष पुराना माना जाता है।

 

कलयुग में शक्ति का अवतार माता जीण भवानी का भव्य धाम जयपुर से से लगभग 115 किलोमीटर दूर सीकर ज़िले (Sikar District) के सुरम्य अरावली पहाड़ियों (रेवासा पहाडियों) में स्थित है।

 

लोक मान्यताओं के अनुसार जीण का जन्म चौहान परिवार में हुआ। उनके भाई का नाम हर्ष था जो बहुत खुशी से रहते थे। एक बार जीण का अपनी भाभी के साथ विवाद हो गया और इसी विवाद के चलते जीन और हर्ष में नाराजगी हो गयी। इसके बाद जीण

आरावली के ‘काजल शिखर’ पर पहुँच कर तपस्या करने लगीं।

 

मान्यताओं के अनुसार इसी प्रभाव से वो बाद में देवी रूप में परिवर्तित हुई। यह मंदिर चूना पत्थर और संगमरमर से बना हुआ है। यह मंदिर आठवीं सदी में निर्मित हुआ था।

 

जीण माता मंदिर में हर वर्ष चैत्र सुदी एकम् से नवमी (नवरात्रा में) व आसोज सुदी एकम् से नवमी में दो विशाल मेले लगते है जिनमे देश भर से लाखों की संख्या में श्रद्धालु आते है। भक्तों की मण्डली द्विवार्षिक नवरात्रि समारोह (हर साल चैत्र और अश्विन/आसोज

माह में शुक्ल पक्ष की नवरात्रि मेले के समय) के दौरान एक बहुत रंगीन नज़र हो जाती है।

 

राजस्थानी लोक साहित्य में जीणमाता का गीत सबसे लम्बा है। इस गीत को कनफटे जोगी केसरिया कपड़े पहन कर, माथे पर सिन्दूर लगाकर, डमरू एवं सारंगी पर गाते हैं। यह गीत करुण रस से ओतप्रोत है।

 

  1. शाकम्भरी माता

 

शाकम्भरी माता का प्राचीन सिद्धपीठ जयपुर जिले के साँभर क़स्बे में स्थित है। शाकम्भरी माता साँभर की अधिष्ठात्री देवी हैं। साँभर एक प्राचीन कस्बा है जिसका पौराणिक, ऐतिहासिक, धार्मिक और पुरातात्त्विक महत्त्व है।

 

इतिहास के अनुसार चौहान वंश के शासक वासुदेव ने सातवीं शताब्दी में साँभर झील और साँभर नगर की स्थापना शाकम्भरी देवी के मंदिर के पास में की। विक्रम संवत 1226 (1169 ई.) के बिजोलिया शिलालेख में चौहान शासक वासुदेव को साँभर झील का निर्माता

व वहाँ के चौहान राज्य का संस्थापक उल्लेखित किया गया है।

 

शाकम्भरी के नामकरण के विषय में  उल्लेख है की एक बार इस भू-भाग में भीषण अकाल पड़ने पर देवी ने शाक वनस्पति के रूप में अंकुरित हो जन-जन की बुभुक्षा शांत कर उनका भरण पोषण किया तभी से इसका नाम शाकम्भरी पड़ गया, जिसका अपभ्रंश ही

साम्भर है।

 

शाकम्भरी माता का मंदिर साँभर से 18-19 कि.मी. दूर साँभर झील के पेटे में स्थित है, जहाँ दर्शनार्थी श्रद्धालुओं का तांता लगा रहता है। साँभर का ऐतिहासिक और पुरातात्त्विक महत्त्व भी अत्यधिक है।

 

शाकम्भरी देवी की पीठ के रूप में साँभर की प्राचीनता महाभारत काल तक चली जाती है। महाभारत (वनपर्व), शिव पुराण (उमा संहिता), मार्कण्डेय पुराण आदि पौराणिक ग्रन्थों में शाकम्भरी की अवतार-कथाओं में शाकादि प्रसाद दान द्वारा धरती के भरण-पोषण  कथायें

उल्लेखनीय हैं।

 

प्रतिवर्ष भादवा सुदी अष्टमी को शाकम्भरी माता का मेला भरता है। इस अवसर पर सैकड़ों की संख्या में श्रद्धालु देवी के दर्शनार्थ यहाँ आते हैं। चैत्र तथा आसोज के नवरात्रों में यहां विशेष चहल-पहल रहती है। यहाँ तीर्थयात्रियों व श्रद्धालुओं के विश्राम हेतु धर्मशालाओं की

समुचित व्यवस्था है।

 

देशभर में मां शाकंभरी माता के तीन शक्तिपीठ हैं: पहला प्रमुख राजस्थान से सीकर जिले में उदयपुर वाटी के पास सकराय मां के नाम से प्रसिद्ध है। दूसरा स्थान राजस्थान में ही सांभर जिले के समीप शाकंभर के नाम से स्थित है और तीसरा उत्तरप्रदेश में

सहारनपुर से 42 किलोमीटर दूर कस्बा बेहट से शाकंभरी देवी का मंदिर 15 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है।

 

– 7. मल्लीनाथ जी

 

मल्लीनाथ जी का जन्म मारवाड़ के रावल सलखा तथा माता जाणीदे के ज्येष्ठ पुत्र के रूप में सन् 1358 में हुआ था। मल्लीनाथ जी एक कुशल शासक थे। उन्होंने सन् 1378 में मालवा के सूबेदार निजामुद्दीन को हरा कर अपनी वीरता का लोहा मनवाया था।

 

मल्लीनाथ जी ने लगभग सन् 1389 में संत उगमसी माही की शरण में जाकर उनको अपना गुरु बनाया तथा दीक्षा प्राप्त की। दस वर्ष बात 1399 में उन्होंने मारवाड़ में संतों का एक विशाल कीर्तन करवाया।

 

मल्लीनाथ जी निर्गुण निराकार ईश्वर में विश्वास करते थे तथा उन्होंने नाम स्मरण का पुरजोर समर्थन किया। लोकदेवता मल्लीनाथ जी के नाम पर ही जोधपुर के पश्चिम के भाग का नाम मालानी पड़ा जिसे आजकल बाड़मेर कहा जाता है। सन् 1399 में ही चैत्र शुक्ला

द्वितीया को उनका देवलोकगमन हुआ।

 

इनका मंदिर तथा स्मारक बाड़मेर जिले में तिलवाड़ा गाँव में है जहाँ प्रतिवर्ष चैत्र कृष्ण एकादशी से चैत्र शुक्ल एकादशी एक विशाल पशु मेले का आयोजन किया जाता है। यह बाड़मेर जिले के तिलवाडा गांव में चैत्र बुदी एकादशी से चैत्र सुदी एकादशी (मार्च-अप्रैल) में

आयोजित किया जाता है। इस मेले में उच्च प्रजाति के गाय, ऊंटों, बकरी और घोडों की बिक्री के लिए लाया जाता है। इस मेले में भाग लेने के लिए सिर्फ गुजरात से ही नहीं बल्कि गुजरात और मध्य प्रदेश से भी लोग आते हैं।

 

तिलवाड़ा के मल्लीनाथ जी के अलावा एक अन्य संत श्री मल्लीनाथ जी भी थे जो जैनियों के 19 वें तीर्थंकर थे। भगवान मल्लीनाथ स्त्री देह से तीर्थंकर हुए | इसे अच्छेराभुत (आश्चर्य -जनक घटना ) माना गया है | अनन्त अतीत मे जितने भी तीर्थंकर हुए , सभी

पुरुष देह मे ही हुए |  मिथिला नरेश महाराज कुम्भ की रानी प्रभावती की रत्नकुक्षी से मार्गशीर्ष शुक्ल एकादशी को प्रभु का कन्या रूप में जन्म हुआ |

 

– 8. पाबूजी

 

राजस्थान के लोक देवता पाबूजी राठौड़ का जन्म वि.संवत 1313 में जोधपुर ज़िले में फलोदी के पास कोलू नामक गाँव में हुआ था। पाबूजी के पिताजी का नाम धाँधल जी राठौड़ था। धाँधल जी एक दुर्गपति थे ।

 

पाबूजी राठौड़ का विवाह अमरकोट के निवासी सोढ़ा राणा सूरजमल की बेटी के साथ हुआ था। पाबूजी राठौड़ ने फेरे लेते हुए सुना कि कुछ चोर एक अबला देवल चारणी की गायों को अपहरण कर ले जा रहे हैं। पाबूजी ने उस अबला औरत को उसकी गायों की रक्षा का

वचन दिया था कि वो उनकी गायों की रक्षा करेंगे । पाबूजी गायों की रक्षा करते-करते वीरगति को प्राप्त हो गये

 

पाबूजी को लक्ष्मणजी का अवतार माना जाता है। राजस्थान में इनके यशगान स्वरूप ‘पावड़े’ (गीत) गाये जाते हैं व मनौती पूर्ण होने पर फड़ भी बाँची जाती है। ‘पाबूजी की फड़’ पूरे राजस्थान में विख्यात है।

 

प्रतिवर्ष चैत्र अमावस्या को पाबूजी के मुख्य ‘थान’ (मंदिर गाँव कोलूमण्ड) में विशाल मेला लगता है, जहाँ भक्तगण हज़ारों की संख्या में आकर उन्हें श्रृद्धांजलि अर्पित करते हैं।

 

राजस्थान के लोक जीवन में कई महान व्यक्तित्व देवता के रूप में सदा के लिए अमर हो गए। इन लोक देवताओं में कुछ को ‘पीर’ की संज्ञा दी गई है। एक जनश्रुति के अनुसार राजस्थान में पाँच पीर हुए हैं, जिनके नाम इस प्रकार हैं- पाबूजी, हड़बूजी, रामदेवजी,

मंगलियाजी, मेहाजी

 

– 9. केसरिया जी

 

केसरिया जी का मंदिर उदयपुर से लगभग 40 किमी. दूर गाँव ‘धूलेव’ में स्थित भगवान ऋषभदेव का मन्दिर है। यह प्राचीन तीर्थ अरावली पर्वतमाला की कंदराओं के मध्य कोयल नदी के किनारे पर स्थित है। ऋषभदेव मन्दिर को जैन धर्म का प्रमुख तीर्थ माना जाता

है।

 

यह प्राचीन तीर्थ अरावली पर्वतमाला की कंदराओं के मध्य कोयल नदी के किनारे स्थित है। ऋषभदेव मंदिर को जैन धर्म का प्रमुख तीर्थ माना जाता है।

 

यह मंदिर न केवल जैन धर्मावलंबियों अपितु वैष्णव हिन्दू लोगों तथा मीणा और भील आदिवासियों एवं अन्य जातियों द्वारा भी पूजा जाता है। भगवान ऋषभदेव को तीर्थयात्रियों द्वारा अत्यधिक मात्रा में केसर चढ़ाए जाने के कारण ‘केसरियाजी’ कहा जाता है।

 

यहाँ प्रथम जैन तीर्थंकर भगवान ‘आदिनाथ’ या ‘ऋषभदेव’ की काले रंग की प्रतिमा स्थापित है। यहाँ के आदिवासियों के लिए ये केसरियाजी कालिया बाबा के नाम से प्रसिद्ध व पूजित हैं।

 

मंदिर में काले पत्थर का एक-एक हाथी दोनों द्वारों की ओर खड़े हुए हैं। हाथी के पास एक हवनकुंड उत्तर की तरफ़ बना है, जहाँ नवरात्रि के दिनों में दुर्गा का हवन होता है। उक्त द्वार के दोनों ओर के ताखों में से एक में ब्रह्मा की तथा दूसरे में शिव की मूर्ति है।

सीढ़ियों के ऊपर के मंडप में मध्यम क़द के हाथी पर बैठी हुई मरुदेवी की मूर्ति है। मंडप में 9 स्तम्भों के होने के कारण यह नौ-चौकी के रूप में जाना जाता है।

 

मन्दिर के उक्त द्वार के बाहर उत्तर के ताख में शिव तथा दक्षिण के ताख में सरस्वती की मूर्ति स्थापित है। वहाँ पर खुदे अभिलेख इसे विक्रम संवत 1676 में बना बताते हैं।

 

– 10. राजस्थान के अन्य प्रमुख लोकदेवता

 

शाकम्भरी माता = शाकम्भरी माता सांभर में स्थित है।

सीमल माता = सीमल माता बसंतगढ़, सिरोही में स्थित है।

हर्षनाथ जी = हर्षनाथ जी सीकर में स्थित है।

शिला देवी = शिला देवीआमेर में स्थित है।

कैला देवी = करौली में स्थित है।

ज्वाला देवी =  ज्वाला देवी, जोबनेर में स्थित है।

कल्ला देवी = कल्ला देवी सिवाना में स्थित है।

खैरतल जी = खैरतल जी अलवर में स्थित है।

करणी माता = करणी माता देशनोक (बीकानेर) में स्थित है।