राजस्थान का संक्षिप्त इतिहास

राजस्थान का संक्षिप्त  इतिहास

 

  1. राजस्थान का प्राचीन इतिहास
  • राजस्थान का इतिहास प्रागैतिहासिक काल से शुरू होता है। आज से करीब एक लाख वर्ष पहले मनुष्य मुख्यतः बनास नदी के किनारे या अरावली के उस पार की नदियों के किनारे निवास करता था।

 

  • आदिम मनुष्य अपने पत्थर के औजारों की मदद से भोजन की तलाश में हमेशा एक स्थान से दूसरे स्थान को जाते रहते थे, इन औजारों के कुछ नमूने बैराठ, रैध और भानगढ़ के आसपास पाए गए हैं।

 

  • ईसा पूर्व 3000 से 1000 के बीच यहाँ की संस्कृति सिंधु घाटी सभ्यता एवं अन्य मानव सभ्यताएँ थी। इस क्षेत्र से होकर सरस्वती और दृशद्वती जैसी विशाल नदियां बहा करती थीं। इन नदी घाटियों में हड़प्पा जैसी संस्कृतियां फली-फूलीं।

 

  • आहड़ संस्कृति, उदयपुर का काल 2100-1500 ईसा पूर्व माना जाता है

 

  • ईसा पूर्व चौथी सदी और उसके पहले यह क्षेत्र कई छोटे-छोटे गणराज्यों में बंटा हुआ था। उस समय उत्तरी बीकानेर पर एक गणराज्यीय योद्धा कबीले यौधेयत का अधिकार था। महाभारत में उल्लिखित मत्स्य पूर्वी राजस्थान और जयपुर के एक बड़े हिस्से पर शासन

करते थे। जयपुर से 80 कि॰मी॰ उत्तर में बैराठ, जो तब ‘विराटनगर’ कहलाता था, उनकी राजधानी थी। इस क्षेत्र की प्राचीनता का पता अशोक के दो शिलालेखों और चौथी पांचवी सदी के बौद्ध मठ के भग्नावशेषों से भी चलता है।

 

 

– • 12वीं सदी तक राजस्थान के अधिकांश भाग पर गुर्जरों का राज्य रहा। गुजरात तथा राजस्थान का अधिकांश भाग ‘गुर्जरत्रा’ अर्थात ‘गुर्जरों से रक्षित देश’ के नाम से जाना जाता था। गुर्जर प्रतिहारो ने 300 सालों तक पूरे उत्तरी-भारत को अरब आक्रान्ताओ से बचाया

था। बाद में जब राजपूतों ने इस राज्य के विविध भागों पर अपना आधिपत्य जमाया ।

 

  • राजपूत राज्यकाल राजस्थान में 650 से 1682 तक मन जाता है, हालाकिं इस दौरान राजस्थान में गुर्जर, जाट, मीणा, एवं मुगलों का भी शासन रहा।

 

  • पृथ्वीराज चौहान (सन् 1166-1192) चौहान वंश के हिंदू क्षत्रिय राजा थे जो उत्तरी भारत में 12 वीं सदी के उत्तरार्ध के दौरान अजमेर और दिल्ली पर राज्य करते थे। वह चौहान राजवंश का प्रसिद्ध राजा थे।

 

  • किंवदंतियों के अनुसार गौरी ने अनैक बार पृथ्वीराज पर आक्रमण किया था, जिसमें उसे पराजित होना पड़ा। हालाकिं इतिहासकारों के अनुसार गौरी और पृथ्वीराज में कम से कम दो भीषण युद्ध आवश्यक हुए थे, जिनमें प्रथम युद्ध (1191) में पृथ्वीराज विजयी और दूसरे

युद्ध (1192) में पराजित हुए।

 

  1. मध्यकालीन गुर्जर-प्रतिहार राज्य

 

  • गुर्जर प्रतिहार वंश की स्थापना नागभट्ट नामक एक सामन्त ने 725 ई. में की थी। ‘प्रतिहार वंश’ को गुर्जर प्रतिहार वंश इसलिए कहा गया, क्योंकि ये गुर्जरों की ही एक शाखा थे, जिनकी उत्पत्ति गुजरात व दक्षिण-पश्चिम राजस्थान में हुई थी। प्रतिहारों के अभिलेखों

में उन्हें श्रीराम के अनुज लक्ष्मण का वंशज बताया गया है, जो श्रीराम के लिए प्रतिहार (द्वारपाल) का कार्य करता था।

 

  • नैणसी की ख्यात में प्रतिहारों की 26 शाखाओं के वर्णन मिलते हैं, लेकिन इनमें मंडोर एवं जालौर (भीमनाल) प्रमुख हैं

 

  • गुर्जर प्रतिहार वंश ने भारतवर्ष को लगभग 300 साल तक अरब-आक्रन्ताओं से सुरक्षित रखकर प्रतिहार (रक्षक) की भूमिका निभायी थी, अत: प्रतिहार नाम से जाने जाने लगे। रेजर के शिलालेख पर प्रतिहारो ने स्पष्ट रूप से गुर्जर-वंश के होने की पुष्टि की है। नागभट्ट

प्रथम एक वीर राजा था।

 

  • गुर्जर-प्रतिहार वंश के प्रमुख शासक थे: नागभट्ट प्रथम (730 – 756 ई.), वत्सराज (783 – 795 ई.), नागभट्ट द्वितीय (795 – 833 ई.), मिहिरभोज (भोज प्रथम) (836 – 889 ई.), महेन्द्र पाल (890 – 910 ई.), महिपाल (914 – 944 ई.), देवपाल (940 –

955 ई.)

 

  1. मध्यकालीन परमार राज्य

 

  • परमार वंश मध्यकालीन भारत का एक राजवंश एवं परमार गोत्र सुर्यवंशी राजपूतों में आता है।

 

  • राजस्थान इस राजवंश का अधिकार प्रतिहारों के पतन के साथ-साथ और बढ़ा था ।

 

  • परमार वंश की अनैक शाखाओं में आबु के परमार एवं मालवा के परमार प्रमुख हैं

 

  • भोज परमार मालवा के ‘परमार’ अथवा ‘पवार वंश’ का नौवाँ यशस्वी राजा था। उसने 1018-1060 ई. तक शासन किया। उसकी राजधानी धार थी। भोज परमार ने ‘नवसाहसाक’ अर्थात ‘नव विक्रमादित्य’ की पदवी धारण की थी।

 

  • भोज स्वयं एक विद्वान था और कविराज कहलाया, उनके बारे में जाता है कि उन्हें धर्म, खगोल विद्या, कला, कोश रचना, भवन निर्माण, काव्य, औषधशास्त्र आदि विभिन्न विषयों पर पुस्तकें लिखीं, जो अब भी वर्तमान हैं।

 

  • परमार वंश की एक शाखा आबू पर्वत पर चंद्रावती को राजधानी बनाकर, 10वीं शताब्दी के अंत में 13वीं शताब्दी के अंत तक राज्य करती रही एवं एक ने जालोर (भीमनाल) में 10वीं शताब्दी के अंतिम भाग से 12वीं शताब्दी के अंतिम भाग तक राज्य किया।

 

  • 1305 में दिल्ली के सुल्तान अलाउद्दीन ख़िलजी ने मालवा को अपनी सल्तनत में शामिल कर लिया, इसके साथ ही परमार राजवंश भी क्षीण हो गया

 

  1. राजस्थान का मेवाड़ राज्य

 

  • मेवाड़ में गुहिल राजवंश की स्थापना गुहिल ने 566 ई. में की थी, इस वंश के नागादित्य को 727 ई. में भीलों ने मार डाला था ।

 

  • नागादित्य के पुत्र बप्पा रावल ने 727 ई में गुहिल राजवंश की कमान संभाली एवं रावल राजवंश के संस्थापक बने । उसका मूल नाम कालभोज था, बप्पा रावल उसकी उपाधि थी ।

 

  • बप्पा रावल (713-810) ने मोरी वंश के अंतिम शासक से चित्तोड़ दुर्ग छीन कर “मेवाड़” राज्य की नीव रखी ।

 

  • उसके बाद मेवाड़ में काफ़ी लम्बे समय राजपूतों का शासन रहा था। बाद में ख़िलजी वंश के अलाउद्दीन ख़िलजी ने 1303 ई. में मेवाड़ के गहलौत शासक रतन सिंह को पराजित करके इसे दिल्ली सल्तनत में मिला लिया था।

 

  • ‘सिसोदिया वंश’ के संस्थापक हम्मीरदेव ने मुहम्मद तुग़लक के समय में चित्तौड़ को जीत कर पूरे मेवाड़ को स्वतंत्र करा लिया। 1378 ई. में हम्मीरदेव की मृत्यु के बाद उसका पुत्र क्षेत्रसिंह (1378-1405 ई.) मेवाड़ की गद्दी पर बैठा।

 

  • क्षेत्रसिंह के बाद उसका पुत्र लक्खासिंह 1405 ई. में सिंहासन पर बैठा। लक्खासिंह की मृत्यु के बाद 1418 ई. में इसका पुत्र मोकल राजा हुआ।

 

  • मोकल के शासन काल में माना, फन्ना और विशाल नामक प्रसिद्ध शिल्पकार आश्रय पाये हुये थे। मोकल ने अनेक मंदिरों का जीर्णोद्धार कराया तथा एकलिंग मंदिर के चारों तरफ़ परकोटे का भी निर्माण कराया। गुजरात शासक के विरुद्ध किये गये एक अभियान के

समय उसकी हत्या कर दी गयी।

 

  • 1431 ई. में मोकल की मृत्यु के बाद राणा कुम्भा मेवाड़ के राज सिंहासन पर बैठा।

 

  • महाराणा कुंभा (1433-1468)राजस्थान के शासकों में सर्वश्रेष्ठ थे। मेवाड़ के आसपास जो उद्धत राज्य थे, उन पर उन्होंने अपना आधिपत्य स्थापित किया। 35 वर्ष की अल्पायु में उनके द्वारा बनवाए गए बत्तीस दुर्गों में चित्तौड़गढ़, कुंभलगढ़, अचलगढ़ जहां सशक्त स्थापत्य

में शीर्षस्थ हैं, वहीं इन पर्वत-दुर्गों में चमत्कृत करने वाले देवालय भी हैं। उनकी विजयों का गुणगान करता विश्वविख्यात विजय स्तंभ भारत की अमूल्य धरोहर है। महाराणा कुंभा की हत्या उसके पुत्र उदयसिंह ने की थी।

 

  • उदयसिंह के बाद उसका छोटा भाई राजमल (1473-1509 ई.) गद्दी पर बैठा। 36 वर्ष के सफल शासन काल के बाद 1509 ई. में उसकी मृत्यु के बाद उसका पुत्र राणा संग्राम सिंह या ‘राणा साँगा’ मेवाड़ की गद्दी पर बैठा।

 

  • राणा साँगा (शासनकाल 1509 से 1528 ई.) ने अपने शासन काल में दिल्ली, मालवा, गुजरात के विरुद्ध अभियान किया। राणा साँगा ने 1517 में इब्राहीम लोधी को खतौली के युद्ध में हराया था। 1527 ई. में खानवा के युद्ध में वह मुग़ल बादशाह बाबर से पराजित हुआ

 

  • राणा साँगा के बाद मेवाड़ पर रतन सिंह (1528-1531), विक्रमादित्य (1531-1534), उदय सिंह (1537-1572), महाराणा प्रताप (1572-1597)

 

  • एवं महाराणा अमर सिंह (1597-1620) प्रमुख मेवाड़ के शासक रहे ।

 

  • अकबर ने सन् 1624 में मेवाड़ पर आक्रमण कर चित्तौड़ को घेर लिया, पर राणा उदयसिंह ने उसकी अधीनता स्वीकार नहीं की थी और प्राचीन आधाटपुर के पास उदयपुर नामक अपनी राजधानी बसाकर वहाँ चला गया था।

 

  • उनके बाद महाराणा प्रताप ने भी युद्ध जारी रखा और अधीनता नहीं मानी थी।

 

  • महाराणा प्रताप (जन्म- 9 मई, 1540 ई. कुम्भलगढ़, मृत्यु- 29 जनवरी, 1597 ) का नाम भारतीय इतिहास में वीरता और दृढ़ प्रतिज्ञा के लिए अमर है। वे उदयपुर, मेवाड़ में सिसोदिया राजवंश के राजा थे। वे अकेले ऐसे वीर थे, जिसने मुग़ल बादशाह अकबर की

अधीनता किसी भी प्रकार स्वीकार नहीं की एवं अकबर के सेनापति राज मानसिंह से  ‘हल्दीघाटी की लड़ाई’ 18 जून, 1576 ई.  में हारने के बाद अकबर की दासता स्वीकारने की जगह जंगलों में रहना पसंद किया एवं छापेमार युद्ध जारी रखा, जहाँ 1597 में उनकी मृत्यु हो

गयी ।

 

  • मेवाड़ पर गहलौत तथा शिशोदिया राजाओं ने 1200 साल तक राज किया। महाराणा प्रताप की मृत्यु पर उसके उत्तराधिकारी अमर सिंह (1596-1620 ई.) ने मुगल सम्राट जहांगीर से संधि कर ली। इस प्रकार 100 वर्ष बाद मेवाड़ की स्वतंत्रता का भी अन्त हुआ। बाद

में यह अंग्रेज़ों द्वारा शासित राज बना।

 

  1. राजस्थान का मारवाड़ राज्य

 

  • मारवाड़ राजस्थान प्रांत के पश्चिम में थार के मरुस्थल में आंशिक रूप से स्थित है। मारवाड़ संस्कृत के मरूवाट शब्द से बना है जिसका अर्थ है मौत का भूभाग. प्राचीन काल में इस भूभाग को मरूदेश भी कहते थे।

 

  • 13वीं शताब्दी में राठौड़ मारवाड़ प्रान्तर में आये तथा अपनी वीरता के कारण उन्होंने यहां अपने राज्य की स्थापना की।

 

  • मारवाड़ में राठौड़ वंश का संस्थापक सीहा (1240-1275) था जो पाली में बस गया था, जिसकी एक तुर्की आक्रमण में मृत्यु हो गयी थी ।

 

  • राव चूण्डा (1384-1423) राव वीरमदेव का पुत्र था जिसने मण्डौर पर अपनी सत्ता स्थापित की थी ।

 

  • राव रणमल (1427-38) के बाद उसका पुत्र राव जोधा मारवाड़ का शासक बना ।

 

  • राव जोधा का जन्म 28 मार्च, 1416 को हुआ था | इनके पिता राव रणमल मारवाड़ के शासक थे। इन्हें जोधपुर शहर की स्थापना के लिए जाना जाता है। इन्होंने ही जोधपु्र का मेहरानगढ़ दुर्ग बनवाया था।

 

  • राव जोधा के बाद राव सातल, राव सुजा, राव गंगा मारवाड़ के शासक बने

 

– • राव गंगा के मरणोपरांत राव मालदेव (1532-62) मारवाड़ का शासक बना, जो अपने समय के राजपूताना के सबसे शक्तिशाली शासक माने जाते थे।

 

  • राव मालदेव ने शेरशाह से भी युद्ध किया जहाँ शेरशाह ने कूटनीति का सहारा लेते हुए मालदेव के शिविर में यह भ्रांति फैला दी कि उसके सरदार उसके साथ नहीं हैं। इससे मालदेव ने निराश होकर बिना युद्ध किये वापस होने का निर्णय कर लिया।

 

  • अत्याधिक कठिनाई से मिली सेमल को विजय के बाद शेरशाह ने कहा कि- “मैं मुट्ठी भर बाजरे के लिए हिन्दुस्तान के साम्राज्य को प्रायः खो चुका था।”

 

  • राव मालदेव की मृत्यु के बाद उनका पुत्र राव चंद्रसेन मारवाड़ का शासक बना, जिसे अकबर के साम्राज्यवाद का सामना करना पड़ा । राव चंद्रसेन राजस्थान का पहला राजपूत शासक था जिसने अकबर की अधीनता मरते दम तक स्वीकार नहीं की एवं 1581 में मृत्यु हो

गयी ।

 

  1. राजस्थान का कछवाहा (जयपुर) राज्य

 

  • कछवाहा वंश राजस्थान के इतिहास में प्रसिद्ध चौहानों की एक शाखा, जो राजस्थानी इतिहास के मंच पर बारहवीं सदी से दिखाई देता है। कछवाहा राजपूत अपने वंश का आदि पुरुष श्री रामचन्द्र जी के पुत्र कुश को मानते हैं।

 

  • कछवाहा वंश की स्थापना कछवाहों के नरवर शाखा के एक वंशज दुल्हाराय ने 1137 ई. में कछवाह वंश की स्थापना की, जो कि 1170 ई. में मीणो से एक युद्ध में मारा गया तब इसका पुत्र कोकिल देव अगला शासक बना।

 

  • 1207 ई. में कोकिल देव ने मीणों से आमेर छीन लिया और उसे अपनी राजधानी बनाया जो अगले 520 वर्षो तक कछवाहा वंश की राजधानी रही।

 

  • कछवाहों को प्रारम्भ में मीणा और बड़गुर्जरों का सामना करना पड़ा था। इस वंश के प्रारम्भिक शासकों में दुल्हराय व पृथ्वीराज बडे़ प्रभावशाली थे, जिन्होंने दौसा, रामगढ़, खोह, झोटवाड़ा, गेटोर तथा आमेर को अपने राज्य में सम्मिलित किया था।

 

– • कछवाहे पृथ्वीराज चौहान, राणा सांगा का सामन्त होने के नाते ‘खानवा के युद्ध’ (1527) में मुग़ल बादशाह बाबर के विरुद्ध लड़े थे। पृथ्वीराज की मृत्यु के बाद कछवाहों की स्थिति संतोषजनक नहीं थी। गृहकलह तथा अयोग्य शासकों से राज्य निर्बल हो रहा था।

 

  • 1547 ई. में राजा भारमल ने आमेर की बागडोर अपने हाथ में ली और 1562 ई. में अकबर की अधीनता स्वीकार कर अपनी ज्येष्ठ पुत्री ‘हरकूबाई’ का विवाह अकबर के साथ कर दिया। भारमल पहला राजपूत था, जिसने मुग़लों से वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित किये

थे।

 

  • राजा भारमल के पश्चात् कछवाहा शासक मानसिंह अकबर के दरबार का योग्य सेनानायक था। रणथम्भौर के 1569 ई. के आक्रमण के समय मानसिंह और उसके पिता भगवानदास अकबर के साथ थे। मानसिंह को अकबर ने काबुल, बिहार और बंगाल का सूबेदार नियुक्त

किया था। वह अकबर के नवरत्नों में शामिल था।

 

  • मानसिंह के पश्चात् के शासकों में मिर्ज़ा राजा जयसिंह (1621-1667 ई.) महत्त्वपूर्ण था, जिसने 46 वर्षों तक शासन किया। इस दौरान उसे अन्य मुग़ल बादशाहों जहाँगीर, शाहजहाँ और औरंगज़ेब की सेवा में रहने का अवसर प्राप्त हुआ था। उसे शाहजहाँ ने ‘मिर्ज़ा राजा’

का खिताब प्रदान किया था।

 

  • जयसिंह ने पुरन्दर में छत्रपति शिवाजी को पराजित कर उसे मुग़लों से संधि के लिए बाध्य किया था। 11 जून, 1665 को शिवाजी और जयसिंह के मध्य इतिहास प्रसिद्ध ‘पुरन्दर की सन्धि’ हुई थी, जिसके अनुसार आवश्यकता पड़ने पर शिवाजी ने मुग़लों की सेवा में

उपस्थित होने का वचन दिया था।

 

  • कछवाहा शासकों में सवाई जयसिंह द्वितीय (1700-1743) का अद्वितीय स्थान है। वह राजनीतिज्ञ, कूटनीतिज्ञ, खगोलविद, विद्वान एवं साहित्यकार तथा कला का पारखी था। वह मालवा का मुग़ल सूबेदार रहा था। जयसिंह ने मुग़ल प्रतिनिधि के रूप में जाटों का दमन

किया। उसने 1725 ई. में नक्षत्रों की शुद्ध सारणी बनाई और उसका नाम तत्कालीन मुग़ल सम्राट के नाम पर ‘जीजमुहम्मदशाही’ नाम रखा।

 

  • जयपुर राजवंश, पहले मुगलों एवं बाद में अंग्रेजों की अधीनता एवं संधि को बेहतर समझकर राज किया एवं आखिरकर स्वतंत्रता के बाद भारत देश में शामिल हुआ

 

– 8. राजस्थान का भरतपुर जाट राज्य

 

  • जाट मुख्यतः खेती करने वाली जाति है; लेकिन औरंगजेब के अत्याचारों और निरंकुश प्रवृति के राजाओं ने उन्हें एक बड़ी सैन्य शक्ति का रूप दे दिया । मुग़लिया सल्तनत के अन्त से अंग्रेज़ों के शासन तक ब्रज मंड़ल में जाटों का प्रभुत्व रहा ।

 

  • ब्रज की समकालीन राजनीति में जाट शक्तिशाली बन कर उभरे । जाट नेताओं ने इस समय में ब्रज में अनेक जगहों पर, जैसे सिनसिनी, डीग, भरतपुर, मुरसान और हाथरस जैसे कई राज्यों को स्थापित किया । राजस्थान में जाट राजवंश मुख्यतया भरतपुर एवं धौलपुर

राज्य ने रहा।

 

  • महाराजा सूरजमल (1755−1763) भरतपुर राज्य के दूरदर्शी जाट महाराजा थे। उनके पिता बदन सिंह ने डीग को सबसे पहले अपनी राजधानी बनाया और बाद में सूरजमल ने भरतपुर शहर की स्थापना की।

 

  • भरतपुर राज्य की नींव महाराजा सूरज मल ने डाली। महाराजा सूरज मल के समय भरतपुर राज्य की सीमा आगरा, धोलपुर, मैनपुरी, हाथरस, अलीगढ़, इटावा, मेरठ, रोहतक, फर्रुखनगर, मेवात, रेवाड़ी, गुड़गांव, तथा मथुरा तक के विस्तृत भू-भाग पर फैली हुई थी।

 

  • भारत के इतिहास में सूरजमल को ‘जाटों का प्लेटो’ कहकर भी सम्बोधित किया गया है। राजा सूरजमल के दरबारी कवि ‘सूदन’ ने राजा की तारीफ में ‘सुजानचरित्र’ नामक ग्रंथ लिखा।

 

  • भरतपुर के जाट राजवंश के प्रमुख राजाओं में : बदन सिंह (1722 – 1756), महाराजा सूरज मल (1756-1767) एवं अन्य राजा थे, अंत में महाराजा ब्रजेन्द्र सिंह, (1929-1947) ने भरतपुर राज्य को भारत में शामिल कर लिया था ।