राजस्थान के संत-सम्प्रदाय

राजस्थान के संत-सम्प्रदाय

 

– 1. वैष्णव सम्प्रदाय

 

वैष्णव सम्प्रदाय, भगवान विष्णु को ईश्वर मानने वालों का सम्प्रदाय है।

 

वैष्णव सम्प्रदाय या  वैष्णव धर्म का प्राचीन नाम ‘भागवत धर्म’ या ‘पांचरात्र मत’ है। इस सम्प्रदाय के प्रधान उपास्य देव वासुदेव हैं, जिन्हें छ: गुणों ज्ञान, शक्ति, बल, वीर्य, ऐश्वर्य और तेज से सम्पन्न होने के कारण भगवान या ‘भगवत’ कहा गया है और भगवत के उपासक

‘भागवत’ कहलाते हैं।

 

इस सम्प्रदाय की पांचरात्र संज्ञा के सम्बन्ध में अनेक मत व्यक्त किये गये हैं। ‘महाभारत’ के अनुसार चार वेदों और सांख्ययोग के समावेश के कारण यह नारायणीय महापनिषद पांचरात्र कहलाता है।

 

प्रारम्भ: अनुमान है कि लगभग 600 ई.पू. जब ब्राह्मण ग्रन्थों के हिंसाप्रधान यज्ञों की प्रतिक्रिया में बौद्ध-जैन सुधार-आन्दोलन हो रहे थे, उससे भी पहले उपासना प्रधान वैष्णव धर्म विकसित हो रहा था, जो प्रारम्भ से वृष्णि वंशीय क्षत्रियों की सात्वत नामक जाति में सीमित

था।

 

वैष्णव धर्म के बारे में सामान्य जानकारी उपनिषदों से मिलती है. इसका विकास भगवत धर्म से हुआ है। वैष्णव धर्म के प्रवर्तक कृष्ण थे, जो वृषण कबीले के थे और जिनका निवास स्थान मथुरा था.

 

वैष्णव के बहुत से उप संप्रदाय हैं. जैसे: बैरागी, दास, रामानंद, वल्लभ, निम्बार्क, माध्व, राधावल्लभ, सखी और गौड़ीय संप्रदाय

 

– 2. रामानुज संप्रदाय (रामावत)

 

वैष्णव मत की पुन: प्रतिष्ठा करने वालों में रामानुज या रामानुजाचार्य का महत्वपूर्ण स्थान है। इनका जन्म 1207 ई॰ में मद्रास के समीप पेरुबुदूर गाँव में हुआ था।

 

वैष्णव मत का प्रारम्भ दक्षिणी भारत में प्रसिद्ध संत यमुनाचार्य ने किया था, रामानुजाचार्य इन्हीं के शिष्य थे

 

जब श्रीरामानुजाचार्य की अवस्था बहुत छोटी थी, तभी इनके पिता का देहावसान हो गया। इन्होंने कांची में यादव प्रकाश नामक गुरु से वेदाध्ययन किया। इनकी बुद्धि इतनी कुशाग्र थी कि ये अपने गुरु की व्याख्या में भी दोष निकाल दिया करते थे।

 

श्रीरामानुजाचार्य ने कांचीपुरम जाकर वेदांत की शिक्षा ली। रामानुज के गुरु ने बहुत मनोयोग से शिष्य को शिक्षा दी। वेदांत का इनका ज्ञान थोड़े समय में ही इतना बढ़ गया कि इनके गुरु यादव प्रकाश के लिए इनके तर्कों का उत्तर देना कठिन हो गया। रामानुज की

विद्वत्ता की ख्याति निरंतर बढ़ती गई। इनकी शिष्य-मंडली भी बढ़ने लगी। यहाँ तक कि इनके पहले के गुरु यादव प्रकाश भी इनके शिष्य बन गए। रामानुज द्वारा प्रतिपादित सिद्धांत ‘विशिष्टाद्वैत’ कहलाता है।

 

रामानुज संप्रदाय में राम या विष्णु की भक्ति की जाती है ।

 

रामानुज के प्रसिद्द शिष्य रामानंद हुए जिन्होंने रामानंदी संप्रदाय की स्थापना की ।

 

– 3. रामानंदी सम्प्रदाय

 

रामानुज के प्रसिद्द शिष्य रामानंद हुए जिन्होंने रामानंदी संप्रदाय की स्थापना की । ये ‘विशिष्टाद्वैत’ सिद्धांत को ही मानते हैं ।

 

रामानंद का जन्म उत्तरप्रदेश के इलाहाबाद में हुआ था ।

 

उन्होंने रामभक्ति की धारा को समाज के निचले तबके तक पहुंचाया। भक्ति आंदोलन को दक्षिण भारत से उत्तर भारत में लेन का श्रेय श्रेय स्वामी रामानंद को जाता है। उन्होंने तत्कालीन समाज में ब्याप्त कुरीतियों जैसे छूयाछूत, ऊंच-नीच और जात-पात का विरोध

किया|

 

रामानंद के कुल 12 शिष्य थे जिनमे से प्रमुख थे : संत पीपाजी, संत कबीर, सेनाजी, सदनाजी, धन्ना जाट जी एवं रैदास जी ।

 

उन्होंने महिलाओं को भी भक्ति के वितान में समान स्थान दिया. उनके द्वारा स्थापित रामानंद सम्प्रदाय या रामावत संप्रदाय आज वैष्णवों का सबसे बड़ा धार्मिक जमात है। वैष्णवों के 52 द्वारों में 36 द्वारे केवल रामानंदियों के हैं। इस संप्रदाय के संत बैरागी भी कहे जाते हैं।

 

– 4. वल्लभ सम्प्रदाय

 

‘वल्लभ सम्प्रदाय’ हिन्दुओं के वैष्णव सम्प्रदायों में से एक है। वल्लभाचार्य ने अपने शुद्धाद्वैत दर्शन के आधार पर इस मत का प्रतिपादन किया था।

 

वल्लभ सम्प्रदाय भक्ति का एक संप्रदाय, जिसकी स्थापना महाप्रभु वल्लभाचार्य ने की थी। इसे ‘वल्लभ संप्रदाय’ या ‘वल्लभ मत’ भी कहते हैं।  चैतन्य महाप्रभु से भी पहले ‘पुष्टिमार्ग’ के संस्थापक वल्लभाचार्य राधा की पूजा करते थे, जहां कुछ संप्रदायों के अनुसार, भक्तों

की पहचान राधा की सहेलियों (सखी) के रूप में होती है, जिन्हें राधाकृष्ण के लिए अंतरंग व्यवस्था करने के लिए विशेषाधिकार प्राप्त होता है।

 

भागवत पुराण के अनुसार भगवान् का अनुग्रह ही पोषण या पुष्टि है।आचार्य वल्लभ ने इसी भाव के आधार पर अपना पुष्टिमार्ग चलाया। इसका मूल सूत्र उपनिषदों में पाया जाता है। कठोपनिषद में कहा गया है कि परमात्मा जिस पर अनुग्रह करता है उसी को अपना

साक्षात्कार कराता है। वल्लभाचार्य ने जीव आत्माओं को परमात्मा का अंश माना है जो चिंगारी की तरह उस महान आत्मा से छिटके हैं।

 

– 5. गौड़ीय संप्रदाय

 

गौड़ीय संप्रदाय का प्रारम्भ 12वीं सदी में माधवाचार्य ने किया था।

 

कृष्णकृपामूर्ती श्री श्रीमद् अभयचरणारविन्द भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद को गौड़ीय वैष्णव संप्रदाय के पश्चिमी जगत के आज तक के सर्वश्रेष्ठ प्रचारक माने जाते हैं।

 

बंगाल में चैतन्य महाप्रभु नामक महान कृष्ण भक्त भी इसी संप्रदाय में हुए । ये मस्त होकर नाचते थे इसलिए इन्हे कृष्ण का अवतार माना जाता है ।

 

परब्रह्म के तीन रूप हैं- स्वयंरूप, तदेकात्मकरूप तथा आवेशरूप। परब्रह्म का स्वयंरूप श्रीकृष्ण हैं जो अपने पूर्णरूप से द्वारिका में, पूर्णतर रूप से मथुरा में और पूर्णतम रूप से से वृंदावन में विराजते थे।

 

इन्होने भगवान विष्णु की भक्ति पर जोर दिया

 

– 6. निम्बार्क सम्प्रदाय

 

निम्बार्क सम्प्रदाय के प्रवर्तक निम्बार्काचार्य कहे जाते हैं। इनमें गृहस्थ और विरक्त दोनों प्रकार के अनुयायी होते हैं। गुरुगद्दी के संचालक भी दोनों ही वर्गों में पाये जाते हैं, जो शिष्यों को मंत्रोपदेश करते हुए कृष्ण की भक्ति का प्रचार करते रहते है।

 

निम्बार्क सम्प्रदाय का राजस्थान में प्रमुख केंद्र अजमेर जिले के सलेमाबाद में आचार्य परशुराम ने स्थापित किया था ।

 

यह सम्प्रदाय वैष्णव चतु:सम्प्रदाय की एक शाखा है। दार्शनिक दृष्टि से यह भेदाभेदवादी है। भेदाभेद और द्वैताद्वैत मत प्राय: एक ही हैं। इस मत के अनुसार द्वैत भी सत्य है और अद्वैत भी। इस मत के प्रधान आचार्य निम्बार्क माने जाते हैं, परन्तु यह मत अति प्राचीन

है। इसे ‘सनकादि सम्प्रदाय’ भी कहा जाता है। मथुरा में स्थित ध्रुव टीले पर निम्बार्क संप्रदाय का प्राचीन मन्दिर बताया जाता है।

 

निम्बार्क सम्प्रदाय  का सिद्धान्त ‘द्वैताद्वैतवाद’ कहलाता है। इसी को ‘भेदाभेदवाद’ भी कहा जाता है। भेदाभेद सिद्धान्त के आचार्यों में औधुलोमि, आश्मरथ्य, भतृ प्रपंच, भास्कर और यादव के नाम आते हैं। इस प्राचीन सिद्धान्त को ‘द्वैताद्वैत’ के नाम से पुन: स्थापित करने

का श्रेय निम्बार्काचार्य को जाता है।

 

‘वेदान्त पारिजात’ ‘सौरभ ब्रह्मसूत्र’ पर निम्बार्काचार्य द्वारा लिखी गई टीका है। इसमें वेदान्त सूत्रों की संक्षिप्त व्याख्या द्वारा ‘द्वैता-द्वैतव’ सिद्धान्त का प्रतिपादन किया गया है।

 

– 7. रामस्नेही सम्प्रदाय

 

रामस्नेही सम्प्रदाय के प्रवर्तक संत रामचरण दास जी थे। इनका जन्म टोंक जिले के सोड़ा गाँव में हुआ था। इनके मूल गाँव का नाम बनवेडा था। इनके पिता बखाराम व माता देऊजी थी तथा वैश्य जाति के थे।

 

इसका मूल रामकिशन था। दातंडा (मेवाड़) के गुरू कृपाराम से दीक्षा ली थी। इनके द्वारा रचित ग्रन्थ अर्ण वाणी है। इनकी मृत्यु शाहपुरा (भीलवाड़ा) में हुई थी। जहाँ इस सम्प्रदाय की मुख्यपीठ है। पूजा स्थल रामद्वारा कहलाते हैं ।

 

इनके पुजारी गुलाबी की धोती पहनते हैं।  ढाढी-मूंछ व सिर पर बाल नहीं रखते है। मूर्तिपुजा नहीं करते थे। इसके 12 प्रधान शिष्य थे जिन्होंने सम्प्रदायक प्रचार व प्रसार किया।

 

रामस्नेही सम्प्रदाय की अन्य तीन पीठ है: सिंहथल बीकानेर, प्रवर्तक – हरिदास जी, रैण (नागौर) प्रवर्तक – दरियाआब जी (दरियापथ) एवं खेडापा (जोधपुर) प्रवर्तक संतरामदासजी

 

रामस्नेही सम्प्रदाय के संतों ने हिंदू-मुसलमान, जैन- वैष्णव, द्विज- शूद्र, सगुण-निर्गुण, भक्ति व योग के द्वन्द्व को समाप्त कर एक ऐसे समन्वित सरल मानवीय धर्म की प्रतिष्ठापना की जो सबके लिए सुकर एवं ग्राह्य था। आगे चलकर मानवीय मूल्यों से सम्पन्न इसी

धर्म को “रामस्नेही संप्रदाय’ की संज्ञा से अभिहित किया गया।

 

– 8. दादू दयाल

 

दादू दयाल (जन्म: 1544 ई. – मृत्यु: 1603 ई.) हिन्दी के भक्तिकाल में ज्ञानाश्रयी शाखा के प्रमुख सन्त कवि थे। इन्होंने एक निर्गुणवादी संप्रदाय की स्थापना की, जो ‘दादू पंथ’ के नाम से ज्ञात है।

 

दादू दयाल अहमदाबाद के एक धुनिया के पुत्र और मुग़ल सम्राट् शाहजहाँ के समकालीन थे। उन्होंने अपना अधिकांश जीवन राजपूताना में व्यतीत किया एवं हिन्दू और इस्लाम धर्म में समन्वय स्थापित करने के लिए अनेक पदों की रचना की।

 

उनके अनुयायी न तो मूर्तियों की पूजा करते हैं और न कोई विशेष प्रकार की वेशभूषा धारण करते हैं।  वे सिर्फ़ राम-नाम जपते हैं और शांतिमय जीवन में विश्वास करते हैं, यद्यपि दादू पंथियों का एक वर्ग सेना में भी भर्ती होता रहा है।

 

कविता के रूप में संकलित इनके ग्रन्थ दादूबाडी तथा दादूदयाल जी दुहा कहे जाते हैं। इनके प्रमुख सिद्धान्त मूर्तिपुजा का विरोध, हिन्दू मुस्लिम एकता शव को न जलाना व दफनाना तथा उसे जंगली जानवरों के लिए खुला छोड़ देना, निर्गुण ब्रह्मा उपासक है। दादूजी के

शव को भी भराणा नामक स्थान पर खुला छोड़ दिया गया था। गुरू को बहुत अधिक महत्व देते हैं। तीर्थ यात्राओं को ढकोसला मानते हैं।

 

– 9. जसनाथी संप्रदाय

 

जसनाथी संप्रदाय के पर्वतक जसनाथ जी थे उनकी प्रमुख पीठ कतियासर, बीकानेर में स्थित है ।

 

जसनाथ जी को हम्मीर जाट और रूपादे ने गोद लेकर पाला था

 

जसनाथी सिद्ध अग्नि नृत्य करते हैं ।  विश्नोई समाज 29 नियमों का पालन करते हैं जबकि जसनाथी समाज में 36 नियम होते हैं ।

 

जसनाथी संप्रदाय के अनुयायी धधकते हुए अंगारों पर अग्नि नृत्य करते हैं

 

जसनाथ जी ने सिंभूदड़ा और कोंडा नामक पुस्तकें लिखी है

 

जसनाथी संप्रदाय के लोग काली ऊन का धागा पहनते हैं, मोरपंख और जाल वृक्ष को पवित्र मानते हैं