राजस्थान के दुर्ग

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राजस्थान के दुर्ग

 

राजस्थान के दुर्गों के प्रकार

राजस्थान में हर 12 कौस पर एक दुर्ग मिल जाता है केवल मेवाड़ राज्य में 84 दुर्ग है। जिन मे से 32 दुर्ग महाराणा कुम्भा ने निर्माण करवाया था।

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कोटिल्य ने दुर्ग को राज्य की बाहु या हाथ बताते हुए दुर्गों की चार श्रेणिया बताई है-

 

1) ओदक दुर्ग

2) एरण दुर्ग

3) वन दुर्ग

4) धानवन्त दुर्ग

 

शुक्रनीति में दुर्गो के 9 भेद बताए गए है जिसमें कोटिल्य द्वारा वर्णित ये चार भेद भी सम्मिलित है जो निम्न है-

 

1 ) एरण दुर्ग:-

वे दुर्ग जिसका मार्ग खाई, कांटों तथा कठौर पत्थरों से युक्त जहां पहुंचना कठिन हो

जैसे – रणथम्भौर दुर्ग ,शाहबाद दुर्ग (बांरा) ।

 

2) पारिख दुर्ग:-

जिसके चारों ओर खाई हो जैसे -भरतपुर का लोहगढ़ दुर्ग व बैर का किला।

 

3) पारिध दुर्ग :-

ईट, पत्थरों से निर्मित मजबूत परकोटा -युक्त

जैसे -चित्तौड़गढ दुर्ग

 

4) वन/ओरण दुर्ग :-

वे दुर्ग जिसके चारों ओर से काटेदार झाडियों और सघन वृक्षों के जंगलों से घिरा हुआ हो वह दुर्ग ओरण दूर्ग कहलाते है। जैसे- सिवाणा दुर्ग(बाड़मेर) रणथम्भोर दुर्ग।

 

5) धान्व दुर्ग/धान्वन/धनवन ( मरूस्थलिय दुर्ग) :-

जो चारों ओर रेत के ऊंचे टीलों से घिरा हो जैसे-सोनारगढ( जैसलमेर), जूनागढ (बीकानेर) ।

 

6) जल/ओदक दुर्ग :-

वे दुर्ग जिसके चारो और जल हो उसे ओदकदुर्ग कहते है। 2 या 3 और से नदियों के प्रवाह से घिरे दुर्ग इस श्रेणी में रखे जाते है। जैसे – गागरोन , भैसरोड़गढ , भटनेर तथा शेरगढ दुर्ग प्रमुख है।

 

7) गिरी दुर्ग :-

एकांत में पहाड़ी पर हो तथा जल संचय प्रबंध हो

जैसे-, कुम्भलगढ़ दुर्ग

 

8) सैन्य दुर्ग :-

जिसकी व्यूह रचना चतूर वीरों के होने से अभेद्य हो यह सैन्य दुर्ग माना जाता हैं। जैसे -तारागढ (बून्दी) , बयाना का दुर्ग , चितौडगढ , नाहरगढ , नागौर का दुर्ग , आदि।

 

9) सहाय दुर्ग :-

वह दुर्ग जिसमें राजपरिवार और उन्के बन्धुबाधवों तथा अधिकारियों व सैनिको आदि की आवास कि व्यवस्था है  जैसे__रणथम्भौर दुर्ग

 

राजस्थान के के प्रमुख दुर्ग

 

रणथम्भौर दुर्ग /रन्त:पुर/रणस्तम्भपुर(सवाई माधोपुर)

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सवाई माधोपुर से लगभग 10 किमी दूर अरावली श्रृखला की ऊँची निची विसम आकृति वाली 7 पहाडियों के मध्य स्थित रणथम्भौर दुर्ग कि स्थिती इतनी विलक्षण है कि यह दुर्ग इसके अत्यन्त पास जाने पर दिखाई देता है।

 

अबुल फजल ने इस दुर्ग के लिए लिखा है कि

 

“यह दुर्ग पहाडी प्रदेश के बीच में है इसी लिए लोग कहते है कि अन्य दुर्ग निरवशन (नंगे) है किन्तु यह बख्तरबंद है।“

 

रणथम्भौर नाम- रण की घाटी में स्थित नगर अर्थात रण उस पहाड़ी घाटी का नाम है जिसके समिप थम्म नामक पहाड़ी पर यह दुर्ग है।

 

इतिहासकारो का मत है कि इस दुर्ग का निर्माण 8वी शताब्दी के लगभग अजमेर के चौहान शासकों ने करवाया था।

 

1192 ई में तराइन के युद्ध में पृथ्वीराज चौहान कि पराजय के पश्चात उसका पुत्र गोविन्दराज गोरी का सामन्त की हैसियत से रणथम्भौर का शासक बना और रणथम्भौर सल्तनतकाल मे कुतुबुद्दीन ऐबक इल्तुतमिश और बलबल आदि सुलतानों के अधिपत्य में रहा बाद में

चौहानों ने पुर्न अधिकार कर लिया।

 

👉🏻रणथम्भौर दुर्ग तक पहुचने का मार्ग एक सकरी और तंग सक्रिलाकार घाटी से जाता है।यह मार्ग अत्यन्त दुर्गम है इस लिए रणथम्भौर दुर्ग को एरण दुर्ग की श्रेणी मे रखा जाता है।

 

रणथम्भौर दुर्ग मे प्रवेस हेतु नोलखा दरवाजा , हाथिपोल , गणेशपोल , सुरजपोल और त्रिपोलिया इस दुर्ग के प्रमुख प्रवेश द्वार है।

 

रणथम्भौर दुर्ग में हम्मीर महल , रानीमहल , सुपारी महल , बादल महल आदि उल्लेखनिय महल है। इन में सुपारी महल इस दृष्टि से विलक्षण है सुपारी महल में एक ही स्थान पर मन्दिर और गिर्जाघर स्थित है।

 

जौरां भौरा तथा हम्मिर कि कचहरी आदि भी उल्लेखनिय है

 

 

रणथम्भौर दुर्ग मे लाल पत्थरों से निर्मित 32 कम्भों की एक कलात्मक छत्रि है जिसका निर्माण हम्मिर देव चौहन ने अपने पिता जेत्र सिंह के 32 वर्ष के शासन के प्रतिक के रूप है

 

रणथम्भौर दुर्ग मे स्थित त्रिनेत्र गणेश जी का मन्दिर सम्पूर्ण भारत में प्रसिध्द है। और इन्हे रणकभंवर कहा जाता है देश भर से हजारों वैवाहिक निमन्त्रण पत्र रणकभंवर जी को भेजे जाते है।

 

रणथम्भौर दुर्ग मे स्थित शिव मन्दिर , लक्ष्मीनारायण मन्दिर भी दर्शनिय है। रणकभंवर में पीर सदरूद्दीन कि दरगाह है। जहा प्रतिवर्ष ऊर्स आयोजित हता है।

 

रणथम्भौर दुर्ग के शासको मे हम्मीर देव का नाम इतिहास के पन्नों पर सर्वाधिक गौरवमय है और हम्मीर को राजस्थान का महानायक माना जाता है संस्कृत व राजस्थानी में हम्मीर पर अनेक ग्रन्थों की रचना है ।

 

1301 में अलाउद्दीन खिलजी ने हम्मीर के दो मन्त्रियों रतीपाल व रणमल को बून्दी का राज्य देने का प्रलोभन दे कर दुर्ग में प्रवेश होने कि सफलता प्राप्त कर ली थी।

 

1301 में रणथम्भौर दुर्ग में राजस्थान का पहला साखा सम्पन्न हुआ। हम्मीर कि रानी रंगदेवी के नेत्तृव में विरागनाओं ने जोहर किया और हम्मिर के नेत्तृव में केसरीया हुआ।

 

रणथम्भौर में ही पहला व एकमात्र जल जोहर सम्पन्न हुआ।

 

अलाउद्दीन खिलजी के बाद कुछ समय तक यह दुर्ग तुगलक वश के अधिन रहा बाद में राणा सांगा ने अधिकार कर लिया और अपनी हाडी रानी कर्मावती और उनके पुत्र विक्रमादित्य और उदयसिंह को प्रदान किया था।

 

सन 1533 में गुजरात के सुलतान बहादुर शाह ने चित्तौड़ पर आक्रमण किया तो कर्मावती ने सन्धि कर यह दुर्ग बहादुर शाह को दे दिया था।

 

बाद में मेवाड ने इस दुर्ग पर पुन: अधिकार कर लिया और बुन्दी के राव सुर्जन हाडा को यहा का किलेदार नियुक्त किया।

 

सन 1569 में सुर्जन हाड़ा ने अकबर से सन्धि कर उसे यह दुर्ग सोप दिया राजपूताना के इतिहास मे यह पहला उदाहरण था जब किसी किलेदार ने बिना युद्ध किये ही अपने स्वार्थ सिद्धी के लिये दुर्ग शत्रु को सोप दिया हो।

 

अकबर ने रणथम्भौर मे साहित्यिक शाला स्थापित की और उसके बाद अन्त: तक मुगलों के अधीन रहा।

 

दर्शनिय स्थल___

  1. रनिहाड़ तालाब 2. जोगी महल 3. सुपारी
  2. जोरां-भोरां/जवरां- भवरां के महल 5. त्रिनेत्र गणेश
  3. 32 कम्भों की छत्तरी 7. रानी महल

 

 

 

चित्तौड़गढ दुर्ग

 

चित्तौड़गढ गिरी दुर्गों में ‘राजस्थान का गौरव’ चित्तौड़गढ का किला राज्य के सबसे प्राचीन और प्रमुख किलों में से एक है यह मौर्य कालिन दुर्ग राज्य का प्रथम या प्राचीनतम दुर्ग माना जाता है

 

अरावली पर्वत श्रृखला के मेशा पठार पर  यह दुर्ग राजस्थान के क्षेत्रफल व आकार की द्रष्टी से सबसे विसालकाय दुर्ग है जिसकी तुलना बिट्रीश पुरातत्व दुत सर हूयूज केशर ने एक भीमकाय जहाज से की थी उन्होंने लिखा हैं-

 

“चित्तौड़ के इस सूनसान किलें मे विचरण करते समय मुझे ऐसा लगा मानों मे किसी भीमकाय जहाज की छत पर चल रहा हूँ”

 

चित्तौड़गढ दुर्ग में राज्य का एकमात्र ऐसा दुर्ग है जिसमें तीन युगों के स्थापत्य शिल्प के अवशेष आज भी सुंरक्षित अवस्था में विधमान है

 

चित्तौड़गढ में इतने मन्दिर है की इसे हिन्दू देवी देवता का म्यूजियम भी कहा जाता है।

 

दिल्ली, मालवा,गुजरात के मार्ग पर स्थित होने के कारण प्राचीन काल व मध्यकाल मे यह दुर्ग सामरिक दृष्टि से अत्यधिक महत्त्वपूर्ण रहा है।

 

यहा के राजपूत योद्धाओं के शोर्य व वीरागनाओं के बलीदान व सुदुढता आदि के कारण चित्तौड़गढ दुर्ग को सब किलों का सिरामोण माना जाता है। इस के लिए यह लोकक्ति प्रसिद्ध है कि-

 

‘गढ तो गढ चित्तौड़गढ बाकि सब गढिया’

 

चित्तौड़गढ दुर्ग ही राज्य का एकमात्र एसा दुर्ग है जो शुक्रनिती में वर्णित दुर्गों के अधिकांश प्रकार के अर्न्तगत रखा जा सकता है। जैसे गिरी दुर्ग, सैन्य दुर्ग, सहाय दुर्ग आदि।

 

 

अरावली श्रृखला के मेशा पठार पर औसत समुद्र तल से 616 मीटर ऊंचे व 16 वर्ग किमी. क्षेत्रफल में विस्तृत यह विशालकाय दुर्ग प्राचीन दुर्ग स्थापत्यकला का उत्कृष्ट उदाहरण माना जाता है।

 

मेवाड़ राज्य के इतिहास ग्रन्थ वीर विनोद के रचयिता कवि श्यामलदास के अनुसार मौर्यनरेश चिंत्रागद ने इस का निर्माण करवाया था तब इस का नाम चित्रकूट था जो कालान्तर में  चित्तौड हो गया।

 

मौर्य वशीय शासक मानमोरी के समय गुहिल वश के बप्पा रावल ने मेवाड पर विजय प्राप्त की थी किन्तु बप्पा ने अपनी राजधानी नागदा को बनाई थी।

 

गुहिल वंश के अल्लट ने देवपाल प्रतिहार को परास्त कर कुछ समय के लिए चित्तौड़गढ दुर्ग पर अधिकार किया था किन्तु बाद मे मालवा के परमार राजा मुंज के पुत्र भोजपरमार ने चित्तौड़गढ दुर्ग में त्रिभुवन नारायण का मन्दिर बनवाया था जिसे बाद में मोकल ने

जिर्णोधार करवाकर सामधेश्वर मन्दिर नाम दिया।

 

सिद्ध् राज सोलकि ने परमारो से इसे छिना और अत: 1213 में गुहिल वशीय जेत्र सिंह ने चित्तौड दुर्ग पर अधिकार करके राजधानी बनाई चित्तौड को रजधानी बनाने वाला गुहिल वशीय प्रथम शासन था।

 

1303 में अलाउद्दीन खीलजी ने रावल रतन सिंह को परास्त कर चित्तौड़गढ पर अधिकार कर लिया व इसका नाम ख्रिजाबाद रखा था।

 

1326 में सीसोदिया वंश के राणा हम्मीर ने चित्तौड़गढ दुर्ग पर पुन अधिकार कर लिया और विषमघाटी पंचानन् व मेवाड़ का तारणहार के नाम से प्रसिद्ध हुआ।

 

हम्मीर के वंशज महाराणा कुम्भा ने चित्तौड़गढ दुर्ग का पुन: निर्माण करवाया व प्राचिरे पुन: मजबुत करवाई व रथ मार्ग का निर्माण करवाया इसनें चित्तौड़गढ को विचित्रकुट का रूप देते हुए सात दरवाजों से सुरक्षित किया चित्तौड़गढ के सात द्ववार पांडवपोल , भैरवपोल ,

गणेशपोल , लक्ष्मणपोल , जोड़लापोल , रामपोल व त्रिपोलिया( हनुमानपोल) द्ववार कहलाते है।

 

चित्तौड़गढ दुर्ग में रावल बाघसिंह , जयमल राठौड , कल्ला जी राठौड तथा सिसोदिया पत्ता के स्मारक तथा छत्तरिया है। चित्तौड़गढ दुर्ग की प्रमुख इमारतों में बनवीर द्वारा बनवाया गया नवलख भण्डार , कुम्भा के महल ,रतन सिंह के महल , पदमनी महल , भामाशाह की

हवेली , जयमल की हवेली , पूरोहितो की हवेली आदि तत्कालिन स्थापत्यकला के परिचायक है।

 

मालवा के सुल्तान महबूबशाह खिलजी पर अपनी विजय की स्मृति मे महाराणा कुम्भा द्वारा 1438 में बनवाया गया विजय स्तम्भ स्थापत्य एंव शिल्प कला का उत्कृष्ट उदाहरण है।

 

 

जैता सूत्रधार और उसके पुत्रों नापा एंव पूंजा के निर्देशन में 10 वर्षों में निर्मित 120 फिट ऊचे इस 9 मजिला विजय स्तम्भ कि प्रत्येक मजिल पर हिन्दू देवी देवता उर्त्कीण है। इस लिए डां उपेन्द्रनाथ डे ने इसे ‘विष्णुस्तम्भ’ का नाम दिया है।जब की फार्गीयूसन ने

रोम के टार्जन स्तम्भ से आदि कलाकृतियों से भी अधिक उत्कृष्ट बताया है।

 

विजय स्तम्भ की आठवी मंजिल पर अल्लाह उर्त्कीण है चित्तौड़गढ दुर्ग में विजयस्तम्भ के अतिरिक्त 11वी शताब्दी में निर्मित जैन किर्ती स्तम्भ भी उल्लेखनिय है।

 

जैन श्रेष्ठी सेठ जीजा शाह बगेरवाला द्वारा निर्मित यह किर्ती स्तम्भ आदिनाथ का स्मारक है और इसके शिर्ष पर चारो और आदिनाथ की मूर्तिया लगी है।

 

चित्तौड़गढ दुर्ग में स्थित श्रृँगार चवरी भी जैन मन्दिर है, जैन तीर्थकर शान्तिनाथ जी के इस मन्दिर का जीर्णोधार 1448 में महाराणा कुम्भा के भण्डारी वेलाख ने करवाया था।

 

श्रृँगार चवरी के अतिरिक्त चित्तौड़गढ दुर्ग में सात बीस देवरी का जैन मन्दिर भी उल्लेखनिय है इस मन्दिर 24 तीर्थक के साथ 3 जैन महिला तीर्थक है।

 

इस के अतिरिक्त अदबुध नाथ जी का जैन मन्दिर है।

 

चित्तौड़गढ दुर्ग में महाराणा कुम्भा द्वारा निर्मित कुम्भा श्याम मन्दिर में मीरा हरिकिर्तन के लिए जाया करती थी। 1567 में चितौड़ विजय के उपरान्त राजा मानसिंह इस मन्दिर की मूर्ति जयपुर ले गया था और अपने पुत्र जगतसिंह के स्मारक में स्थित जगत सिरोमणी

मन्दिर मे स्थापित की थी।

 

चित्तौड़गढ दुर्ग में स्थित तुजला माता का मन्दिर (प्रतिहार/परमार की कुल देवी ) ,कालिका माता मन्दिर , बाणमाता मन्दिर ( सिसोदिया की कुल देवी ) तथा अन्नपुर्णा देवी और लक्ष्मी जी का मन्दिर भी उल्लेखनिय है।

 

कालिका माता का मन्दिर प्राचीन सूर्य मन्दिर था जिसे किसी शासक ने रूपान्तिरत कराकर महाकाली की मूर्ति स्थापित करावा दी थी।

 

1303 में अलाउद्दीन खीलजी के आक्रमण के समय रावल रतन सिंह व गौरा व बादल के नेतृत्व में हुआ व रानी पदमिनी ने जौहर का नैतृत्व किया।

 

चित्तौडगढ़ के प्रथम साके/ युद्ध का आंखों देखी अलाउद्दीन का दरबारी कवि और लेखक अमीर ने अपनी कृति तारीख -ए-अलाई में प्रस्तुत किया।

 

1534 में गुजरात के शासक बहादुरशाह के आक्रमण के समय हुआ उस समय मेवाड़ का शासक हाड़ी रानी कर्मावती का पुत्र विक्रमादित्य था किन्तु उसे बुन्दी भेज कर डूगरपुर के रावत बाघ सिंह के नेतृत्व में साखा हुआ। तथा राजमाता कर्मावती ने जौहर का नेतृत्व

किया।

 

1567 में अकबर के चितौड़ के समय हुआ जब मेवाड़ का शासक उदय सिंह था। जो दुर्ग छोड कर पहाडों चला गया था और साखे का नेतृत्व जयमल राठौड और पत्ता शिशोदिया ने किया था दुर्ग में उपस्थित वीरागनाओं ने जौहर किया।

 

 

तारागढ दुर्ग ( अजमेर )

 

गंढ बिट्ठली / अजमेरू दुर्ग / राजस्थान का ह्रदय / राजपूताना की कुंजी आदि नामों से जाना जाता है।

 

अजमेर के पश्चिमी पहाड़ी पर भू तल से 1300 फिट ऊँचाई पर 80 एकड के क्षेत्र में स्थित तारागढ दुर्ग राजपुताना का एक सुदुढ दुर्ग रहा है।

 

डा. हरबिलास शारदा के मतानूसार

इस दुर्ग का निर्माण 7वी. श्ताब्दी में अजयपाल चौहान ने करवाया था किन्तु अधिकास इतिहासकारों का मत है इस दुर्ग का निर्माण 12वी. शताब्दी में चौहान नरेश अजयराज ने करवाया था । 12वी. शताब्दी तक यह दुर्ग अजयमेरू दुर्ग के नाम से जाना जाता था। जहा

मान सोमेश्वर 1170 ई. के बिजोलिया शिलालेख में भी इस दुर्ग का नाम अजयमेरु ही उल्लेखित है।

 

1141 के जैन धर्म आवश्यक निरयुक्ति से ज्ञात होता है की शाकम्भरी के चौहान शासक अजयराज ने अपने पिता पृथ्विराज प्रथम की समृति में 12वी शताब्दि में इस दुर्ग का निर्माण करवाकर इसके निचे पृथ्विपुर नगर की स्थापना की थी। जो बाद में अजयमेरू तथा अजमेर

के नाम से विख्यात हुआ।

 

1505 ई. मे मेवाड़ के महाराणा रायमल के पुत्र कुवर पृथ्वीराज ने माडू के सुल्तान के किलेदार को परास्त कर इस दुर्ग पर अधिकार कर लिया और यहा पर कुछ महल आदि बनवाकर इस किले का नाम अपनी प्रिय रानी ताराबाई के नाम पर तारागढ रख दिया।

 

17वी. शताब्दी में शाहजहाँ के सेनानायक बिट्ठलदास वोड ने 1644 से 1656 के मध्य इस दुर्ग का जीर्णोद्धार करवाया था। और बिठलदास के नाम से यह गढ बिट्ठली कहलाने लगा जबकि गोपीनाथ  का मत है की इस पहाड़ी का नाम बिठली था इसलिए यह किला

गढ बिट्ठली कहलाता था बाद मे इसे बिट्ठलदास के नाम से जोड दिया गया।

 

गिरीदुर्ग होने के कारण पहाड़ियों की बनावट के अनुसार इसकी सुदुढ प्राचीरें भी घुमावदार है और कहि तो 20 फिट चौड़ी है।

 

दुर्ग मे वर्ष भर पेयजल की आपूर्ति के लिए सक्षम 5 जलाशय है जिन मे से 4 जलाशय दुर्ग के भितर तथा तथा 1 बहार है। दुर्ग मे खाद्यय सामग्री भण्डारण की अपूर्व क्षमता थी और तेल व घी के कुएं थे। जिन्हे देख कर विसप हैब्बर ने तारागढ को “पूर्व का दूसरा

जिब्राल्टर बताया था।

 

इस भण्डार गृह और कुँओं को बाद में अग्रेजों ने नष्ट करवा दिये व तारागढ दुर्ग में स्थित जलाशय नाना साहब का झालरा कहालाते है क्योंकि इसका निर्माण 1791 में मराठा सरदार शिवाजी नाना सहाब द्वारा करवाया गया था।

 

19वी. शताब्दी में बिट्रीश सत्ता की अधिनता में खाली पडे दुर्गों को नष्ट करने के आदेश के तहत यह दुर्ग भी नष्ट कर दिया गया और अब इसके टूटे फूटे पूरावशेष ही शेष है जिनमे चौहान शासकों द्वारा निर्मित कचहरी भवन व कुछ बुर्जें ही शेष है।

 

तारागढ दुर्ग के सबसे ऊँचे भाग पर मिरान सहाब की दरगाह है जिसे मिरादाताना कहा जाता है।

 

मिरानसहाब की दरगाह की प्रतिष्ठा अकबर के शासनकाल में ही थी। और इस दरगाह का बुलन्द दरवाजा मिनारों ,आगन तथा बरामदे 16वी शताब्दी के स्थापत्य के उदाहरण है। प्रतिवर्ष यहा मीनार सहाब का ऊर्ष भरता है इस किले के सभी भवन नष्ट हो चूके है।

मिरानसहाब की दरगाह व चौहानों की कचहरी भवन के अवशेष ही शेष है। शेरशाह ने तारागढ में पानी पहुचाने के लिए शीरचश्म नामक झरने का निर्माण करवाया था।

 

तारागढ दुर्ग में घोड़े की मजार , नानाजी का झालरा , रूठी रानी उमादे की छतरी , पृथ्वीराज स्मारक स्थित है।

 

अकबर का किला ( अजमेर )मेग्जिन दुर्ग

 

इस्लामी स्थापत्य शैली मे निर्मित और मुगलो द्वारा राजस्थान में बनवाया गया एकमात्र किला अकबर का किला और अब मेग्जिन कहलाता है। और अजमेर के नए बाजार मे स्थित है।

 

मुगल बादशाह अकबर द्वारा 1570 में निर्मित यह दुर्ग सामरिक उद्देश्य के साथ अकबर की अजमेर जियारत के समय उसके आवास स्थल की दृष्टि से बनवाया गया था। इस लिए इसे अकबर का दौलतखाना भी कहा जाता है।

 

1570 से 1579 तक अकबर प्रतिवर्ष अजमेर आया और इसी दुर्ग में ठहरा था। इस लिए इसे राजस्थान का लाल किला भी कहा जाता है।

 

चतर्भुजकार आकृति में बने इस दुर्ग का सर्वाधिक आकर्षक भाग इसका 54 फिट ऊचां तथा 43 फिट चौड़ा दरवाजा है। जिसके मध्य सुन्दर झालीदार झरोखे बने है।

 

 

यह दरवाजा जहाँगीर दरवाजा कहलाता है। क्योंकि मुगल बादशाह जहाँगीर 18 नवंबर 1613 से 10 नवंबर 1616 तक तीन वर्षो तक अपने मेवाड़ अभियान के दौरान अजमेर स्थित इस किले में रहा था और यही से मेवाड़ के महाराणा अमरसिंह के विरुध अपना युद्ध अभियान

संचालित किया था।

 

अकबरी किले के मुख्य द्वार पर झरोखे में बैठकर जनता को दर्शन देता था और उनके अभाव अभियोग सुन कर न्याय प्रदान करता था।

 

इस द्वार पर जहाँगीर का प्रसिद्ध इन्साफ़ का घण्टा प्रसिद्ध है।

 

इग्लेण्ड के राजा जेम्स प्रथम के राजदूत सर टॉमस रॉ ने 10 जनवरी 1616 को इस जहाँगीर दरवाजे के सम्मुख प्रस्तुत हो कर अपना परिचय पत्र प्रस्तुत किया था। और जहाँगीर ने इस्ट इडिया कम्पनी के लिए भारत में व्यापार करने की अनुमति प्रदान की थी।

 

सर टॉमस रॉ लगभग 1 वर्ष तक जहाँगीर के मेहमान के रूप में इसी किले मे रहा था।

 

जहाँगीर के बाद शाहजहाँ , औरंगज़ेब और बहादूरशाह प्रथम आदि मुगल बादशाहों ने भी इस दुर्ग का उपयोग किया था। मुगलो के पतन के बाद यह किला रौठोडों और फिर मराठों के अधिपत्य मे रहा।

 

1801 में अग्रेजों ने इस किले पर अधिकार कर लिया और इसकी मजबूती देखकर इसे अपना शहस्त्रागाह ( मेग्जिन ) बना लिया तभी से यह दुर्ग मेग्जिन कहलाने लग गया।

 

1857 की क्रान्ति के समय अग्रेजों ने इस किले मे शरण ली थी।

 

19 अक्टूबर 1908 को कर्नल अर्सकिन ने इस किले के आन्तरिक भाग मे राजकिय पुरातत्व संग्रहालय का उदघाटन किया और पं. गौरी शंकत हिराचन्द औझा को इस संग्रहालय का क्यूरेटर नियुक्त किया था।

 

औजा ने अर्सकिन के राजपूताना गजेटियर मे सहायता प्रदात कि थी।

 

सन 1968 में राज्य सरकार द्वारा अकबर के किले को संरक्षीत स्मारक घोषित किया है।

 

1908 में इसे संग्रहालय में बदल दिया गया, जिसमें छठी एवं सातवी शताब्दी एवं उसके बाद की कई हिन्दू मूर्तियाँ रखी हुई हैं। इन मूर्तियों की अधिकतर बनावट राजपूत और मुगल शैली के मिश्रण को दर्शाती है।

 

काले संगमरमर से बनी देवी काली की एक बड़ी प्रतिमा यहाँ का सबसे प्रसिद्ध आकर्षण है। प्राचीन सैन्य और युद्ध उपकरण, प्राचीन तोपखाने और हथियार, मूर्तियाँ और पत्थर की मूर्तियाँ भी इस संग्रहालय में देखी जा सकती है

 

मेंहरानगढ दुर्ग / गढ चिन्तामणि ( जोधपुर )

 

जोधपुर के संस्थापक राव जोधा ने 13 मई 1459 ई. को मड़ोर से लगभग 10 किमी. दक्षिण में स्थित चिड़ीया की टूक नामक पहाड़ी पर लोकदेवी करणी माता के हाथों जोधपुर के विसालकाय दुर्ग की नीव रखवाई थी।

 

इस दुर्ग का प्रारम्भिक नाम गढ चिन्तामणि था किन्तु इसके विसाल आकार के कारण इसे मेहरान गढ कहा जाने लगा। इसकी आकृति मयूर जैसी है। इसलिए इसे मयूर ध्वजगढ या मोरधज का किला भी कहा जाता है।

 

किले की पहाड़ी पर प्रसिद्ध नाथयोगी चिड़ीयानाथ की सधना स्थली थी इस लिए इस पहाड़ी को चिड़ीया की टूक कहा जाता है।

 

जोधपुर का मेहरानगढ ही एकमात्र एसा दुर्ग है जिस की नीव में राजिया भाभी नामक जीवीत व्यक्ति को गाड़ कर बलि देने का लिखित शाक्य उपलब्ध है।

 

जिस स्थान पर राजिया को गाड़ा गया था उस स्थान पर कोषागार और नकारखाना का भवन बनवाया गया था।

 

500 x 200 गज के क्षेत्रफल में विस्तारित मेहरानगढ भूतल से लगभग 400 मीटर ऊँचा है।

 

और किले के चारों और 20 फिट 120 फिट ऊँचा और 12 से 70 फिट चौड़ा सुदुढ परकोटा है।

 

इस दुर्ग के प्रवेश दरवाजों में लोहपोल , जयपोल , और फतहपोल प्रमुख है। लोहपोल का निर्माण मालदेव ने प्रारम्भ करवाया था जिसे महाराणा विजय सिंह ने पूरा करवाया था। उत्तर पूर्व मे बने जयपोल का निर्माण महाराजा मानसिंह ने करवाया था।

 

जयपोल में लगा लोह का विसाल किवाड़ निम्बाज के ठाकुर अमर सिंह उदावत अहमदाबाद से लूट कर लाए थे। दक्षिण पश्चिम में बने फतहपोल का निर्माण जोधपुर से मुगल खालसा उठा लिये जाने के उपलक्ष्य में अजितसिंह ने करवाया था।

 

इसके द्वारों में ध्रवपोल , सूरजपोल , अमृतपोल और भैरवपोल आदि उल्लेखनिय है। 1544 में शेरशाह सूरी ने जोधपुर के किले मे अधिपत्य कर इसमें एक मस्जिद का निर्माण करवाया था।

 

बाद में मालदेव ने पुन: इस दुर्ग पर अधिकार कर लिया लालपत्थरों से निर्मित और अलकृत झरोखों से सुसोभित जोधपुर का किला अपने अनूठे राजपूत स्थापत्य कला और विशिष्ट संरचना के लिए अपनी पृथक पहचान रखना है।

 

इसलिए रूड यार्न किपलिन ने इस किले के बारे में लिखा है-

“ इसका निर्माण फरिस्तो , परियों और देवताओं कि करामत है। “

 

रूठीमेहरानगढ के महलों में मालदेव द्वारा निर्मित चौकालाव महल अपने भित्ति चित्रकलाओं के लिए अन्तरराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त है।

 

मेहरानगढ के अन्य महलों में महाराजा शूरसिंह द्वारा निर्मित मोती महल व अभय सिंह द्वारा निर्मित फूलमहल भी दर्शनिय है। फूवलमहल की छत लादरवा तकनीक से बनी है।

 

महाराजा अजित सिंह द्वारा निर्मित फतहसागर तथा बीचलामहल ,ख्वाबगाह का महल , तख्तविलास , रानीवास आदि भी देखनीय महल है।

 

मेहरानगढ दुर्ग के दोलतखाने में महाराजा तख्तसिंह ( बख्तसिंह ) द्वारा निर्मित श्रृंगार चौकि है, जहा जोधपुर नरेश का राजतिलक होता था।

 

मेहरानगढ दुर्ग मे राव जोधा द्वारा दुर्ग की स्थापना के समय निर्मित नागेणची माता का मन्दिर चामुण्डा माता के मन्दिर के नाम से जाना जाता है। 1857 में जोधपुर दुर्ग के बारुद खाने पर बिजली गिरने के कारण हुए विस्फोट के कारण यह मन्दिर क्षतिग्रस्त हो गया था।

बाद मे तख्तसिंह ने इसका पुन: निर्माण करवाया।

 

महाराण अभयसिंह द्वारा बनवाए गए मूरली मनोहर जी का मन्दिर , आन्नद धन जी का मन्दिर उल्लेखनीय है।

 

आन्नदधन जी के मन्दिर मे स्थापित बिल्लोर पत्थरों की पाँच मूर्तिया महाराज शूरसिंह को अकबर ने भेट की थी। मेहरानगढ में महाराजा मानसिंह द्वारा 1805 स्थापित पुस्तकालय भी उल्लेखनीय है।

 

इस पुस्तकालय में संस्कृत के हजारों दुर्लभ हस्थलिखित ग्रंथ है।

 

मेहरानगढ मे महाराजा अजित सिंह द्वारा बनवाई गई किलकिला तोप व महाराजा अभय सिंह द्वारा सर बुलन्द खाँ छिनी शम्भु तोप तथा महाराजा गजसिंह द्वारा जालौर विजय में प्राप्त गजनी खाँ तोप सहित जैसी विसाल तोपों सहित सेकडो तोपे स्थित है

 

कुम्भलगढ दुर्ग ( राजसमन्द )

 

कुम्भलगढ दुर्ग चितौड़ के बाद राज्य का दुसरा प्राचीनतम दुर्ग है राजसमन्द जिले के सादड़ी गाँव के समीप अरावली श्रृखला के जरगा पहाड़ की चौटी पर 3766 फिट की ऊँचाई पर स्थित इस दुर्ग का निर्माण ई पूर्व 3 शताब्दी में अशोक के पुत्र या पौत्र मौर्य राज सम्प्रति

ने करवाया था मौर्य राजा सम्प्रति राजस्थान में जैन धर्म को शासकीय संरक्षण प्रदान करने वाला प्रथम शासक था। और राजस्थान मे प्रचीन जैन मन्दिरों की विपुल संख्या सम्प्रति के संरक्षण का ही प्रतीफल है।

 

सम्प्रति के किले के भग्नावशेषों पर महाराणा कुम्भा ने अपने राज्य शिल्पी मंडन के नेतृत्व मे 1443 से 1458 के बीच कुम्भलगढ दुर्ग का निर्माण करवाया था। इसे कुम्भलमेर दुर्ग का पुर्न: निर्माण करवाया था।

 

मेवाड़ व मारवाड की सीमा पर स्थित होने के कारण कुम्भलगढ दुर्ग का सामरिक दुष्टि से अत्यधिक महत्त्वपूर्ण माना जाता है।

 

कुम्भलगढ दुर्ग जाने के लिए देलवाडा से पश्चिम की और पहाड़ी नाल से हो कर एक तंग रास्ता जाता है जिस पर कुम्भलगढ का प्रथम द्वार ओरठपोल आता है। यह दुर्ग का ना हो कर पहाड़ी घेराव का मार्ग है ओरठपोल से 1 मील आगे हल्लापोल है यह भी दुर्ग की सुरक्षा

के लिए निर्मित मार्ग अवरोधक द्वार है।

 

हल्लापोल के बाद हनुमानपोल आता है जो कि कुम्भलगढ दुर्ग का मुख्य प्रवेस दरवाजा है इस दरवाजे के बहार कुम्भा द्वारा मडोल से लाई गई हनुमान जी की प्रतिमा प्रतिष्ठित है।

 

हनुमान पोल के बाद विजय पोल और राम पोल आते है यहा से दुर्ग का भितरी भाग शुरु हो जाता है। और दुर्ग के चारो ओर बनी सुदुढ प्राचीरें स्पष्ट दिखाई देती है।

 

कुम्भलगढ दुर्ग की प्राचीरे इतनी चौड़ी है की इन पर चार घुड़सवार एक साथ चल सकते थे। कुम्भलगढ दुर्ग की प्राचीरो की तुलना चीन की दिवार से कि जाती है।

 

कुम्भलगढ दुर्ग के पूर्व में एक चौकोर संभाग मे एक निलकठ महादेव का मन्दिर है जो चारों ओर से बरामदो से घिरा है। इस लिए कर्नल टार्ड ने भ्रांतीवश इसे यूनानी शैली का मन्दिर मान लिया था।

 

यही पर दुर्ग की प्रतिष्ठता हेतु किये गये यज्ञ के लिए बनी दुमजिला भवनुमा यज्ञ वेदी है।

 

इसके निचे वाले भाग में झाली बावडी व मामा देव का कुण्ड़ है इस कुण्ड़ के समीप स्थित मामावट के स्थान पर कुम्भा ने कुम्भा स्वामी का विष्णुमन्दिर बनवाया था। जो अब जीर्णक्षीण अवस्था में है और मामादेव के मन्दिर के नाम से जाना जाता है।

 

कुम्भलगढ दुर्ग की सर्वप्रथम विशेषता यह है कि इस दुर्ग के भितर एक और किला है। जो इसके सबसे उचे भाग पर स्थित है जिसे इसकी सीधी चढाई के कारण कट्टारगढ कहते है।

 

अबुल फजल ने इसकी ऊचाई को लक्ष्यीत कर कहा की “कोई भी व्यक्ति पगडी बाध कर इस दुर्ग को नही देख सकता।“

 

कुम्भलगढ दुर्ग में स्थित कट्टारगढ को मेवाड़ की आँख कहा जाता है।

 

कट्टारगढ भी प्राचीरो और दरवाजों से सुरक्षीत है और राणा कुम्भा के महल रानीवास आदि इसी में स्थित है।

 

कुम्भलगढ में महाराणा रायसिंह के पुत्र कुवर पृथ्वीराज के स्मारक रूपी बाराह खम्भों की छत्री बनी हुई है। जिसमे लगे स्मारक स्तमभ पर कुँवर पृथ्वीराज के साथ सति होने वाली 16 रानियों व एक पासवान की मूर्तिया उर्त्कीण है जिन पर नाम भी लिखा है।

 

कर्नल टाड़ ने कुम्भलगढ दुर्ग को ‘एटक्सन’ की उपाधी दी

 

सोनारगढ दुर्ग ( जैसलमेर )

 

जैसलमेर के सोनारगढ दुर्ग को सोहनगढ के नाम से भी जाना जाता है और इसे उत्तरी सीमा का प्रहरी कहा जाता है यूनेस्को द्वारा 2008 में जैसलमेर के सोनारगढ दुर्ग को विश्व धरोहर में सम्मिलित किया गया थ॥

 

जैसलमेर के भाटी शासकों की गौरव के प्रतिक सौनारगढ दुर्ग की नीव 11 जुलाई 1156 ई. को जैसलमेर के संस्थापन राव जयमल (जैसल) ने नीव रखी थी।

 

जैसलमेर की त्रिभुजाकार त्रिकृट पहाडी पर 250 फिट की ऊचाई पर स्थित इस दुर्ग के निर्माण में 7 वर्षो का समय लगा था त्रिकुटाकृति के इस दुर्ग मे पिले पत्थरों का प्रयोग किया है।और कहि पर भी चूने व गारे का प्रयोर नही किया गया था।

 

पिले पत्थरों से निर्मित यह दुर्ग प्रात व सायेकाल सुर्य की किरोणों से प्रदिप्त हो कर सोने जैसे चमकता है इसी लिये इसे सोनारगढ कहते है। विख्यात फिल्मी निर्देशक सत्यजीत रै इस दुर्ग पर आधारित ‘सोनार किला ‘नामक फिल्म बनी थी।

 

।सोनारगढ किले के चारो और पर्वतों को ढकने के लिए पत्थरों से र्स्कटनूमा परकोटा तैयार किया गया है। इस परकोटे को कमर कोट कहा जाता है। यह मुख्य दुर्ग बहार दुर्ग की रक्षा प्राचीर का कार्य करता है।

 

व।सोनारगढ दुर्ग के चारों और बनी प्राचीर में मोर्चा बन्धी के लिए 99 बुर्जें बने है प्रत्येक बुर्ज लगभग 30 फिट ऊचा है और इनमे तोप तथा युद्ध सामग्री रखने की व्यवस्था है।

 

राजस्थन के दुर्गों में सर्वाधिक बुर्ज सोनारगढ दुर्ग मे ही है।

 

सोनारगढ का प्रवेश द्वार अक्षयपोल या अखेपोल( अजयपोल) कहलात है।

 

दुर्ग का द्वितीय दरवाजा सुरजपोल कहलाता है। इसके दाहिनी और बेरीशाला की बुर्ज नामक एक भव्य मिनार बनी है। इनके अतिरिक्त प्रवेश के लिए गणेश्पोल व हवापोल को पार करना होता है।

 

सोनारगढ के दुर्ग में पेयजल की अपूर्ती हेतु प्रसिद्ध जैसलू कुंआ है अनूश्रृति के अनुसार यह कूंए का निर्माण भगवान श्री कृष्ण ने अपने सुदर्शन चक्र से किया था। ताकि उनके वंशज यदूवशिय भाटियों को पेयजल उपलब्ध हो सके ।

 

सोनारगढ दुर्ग में महारावल अखेसिंह द्वारा निर्मित सर्वोत्तम विसाल भव्य राजमहल है जिसे शिशमहल कहते है। महारावल मूलराज द्वितीय द्वारा बनवाया गया रंगमहल तथा मोती महल और महारावल गजसिंह द्वारा निर्मित गजमहल इस दुर्ग के दर्शनिय महल है।

 

जैसलमेर दुर्ग के लिए कहा जाता है कि

“ केवल पत्थर कि टागे ही आपको इस दुर्ग तक पहुंचा सकती है”

 

जैसलमेर दुर्ग मे तीन साखे हुए थे। किन्तु 1550 ई. में राव लुणकरण के शासनकाल मे हुआ तीसरा साखा अर्ध्द माना जाता है क्योंकि इसके राजपूतों ने तो केशरिया किया था। परन्तु वीरागनाओं ने जौहर नही कर पाई। इस लिए जैसलमेरियों के ढाई साखे कहलाते है।

 

जैसलमेर के भाटी शासकों को उत्तरी सीमा का रक्षक माना जाता है पाटण की रानी ने यहा के शासन विजय राज भाट्टी को उत्तर भड किवाड़ भाटी की उपाधि से सम्मानित किया था।

 

जैसलमेर का सौनारगढ दुर्ग चितौड के बाद सबसे बडा लिविंग फोर्ट है

 

 

 

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